Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 64
________________ रूपो गुर्वावली, पट्टावली, उत्पत्तिग्रथ, दफ्तरबही, ऐतिहासिक टिप्पण, अथ प्रशस्ति, ववनिका, दवावैत, सिलोका, बालाववोध, बात आदि की सृष्टि की । यह सृष्टि इसलिए और भी महत्त्वपूर्ण है क्योकि उसके द्वारा हिन्दी गद्य का प्राचीन ऐतिहासिक विकास स्पष्ट होता है । हिन्दी के - प्राचीन ऐतिहासिक और कलात्मक गद्य मे इन काव्य रूपो की देन महत्त्वपूर्ण है। जैन-धर्म का लोक-संग्राहक रूप धर्म का आविर्भाव जब कभी हुआ विषमता मे समता, अव्यवस्था मे व्यवस्था और अपूर्णता मे सम्पूर्णता स्थापित करने के लिए ही हुआ । अतः यह स्पष्ट है कि इसके मूल मे वैयक्तिक अभिक्रम अवश्य रहा पर उसका लक्ष्य समष्टिमूलक हित ही रहा है, उसका चिन्तन लोक हित की भूमिका पर ही अग्रसर हुआ है। पर सामान्यतः जब कभी जैन धर्म या श्रमण धर्म के लोक सग्राहक रूप की चर्चा चलती है तब लोग चुप्पी साध लेते है। इसका कारण शायद यह रहा है कि जैन दर्शन मे वैयक्तिक मोक्ष की बात कही गई है, सामहिक निर्वाण की बात नही । पर जब हम जैन दर्शन का सम्पूर्ण सन्दर्भो मे . अध्ययन करते है तो उसके लोक सग्राहक रूप का मूल उपादान प्राप्त हो जाता है। लोक सग्राहक रूप का सबसे बड़ा प्रमाण है लोकनायको के जीवन क्रम की पवित्रता, उनके कार्य-व्यापारो की परिधि और जीवन-लक्ष्य की व्यापकता । जैन धर्म के प्राचीन ग्रथो मे ऐसे कई उल्लेख पाते है कि राजा श्रावक धर्म अगीकार कर, अपनी सीमाओ मे रहते हुए, लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियो का सचालन एव प्रसारण करता है । पर काल-प्रवाह के साथ उसका चिन्तन बढता चलता है और वह देश विरति श्रावक से सर्वविरति श्रमण बन जाता है। सासारिक मायामोह, पारिवारिक प्रपच, देह-आसक्ति से विरक्त होकर वह साधु श्रमण, तपस्वी और लोक-सेवक बन जाता है। इस रूप या स्थिति को अपनाते ही उसकी दृष्टि अत्यन्त व्यापक और उसका हृदय अत्यन्त उदार बन जाता है। लोक-कल्याण मे व्यवधान पैदा करने वाले सारे तत्त्व अब पीछे छट जाते हैं और वह जिस साधना पर बढता है, उसमे न किसी के प्रति राग है न द्वेष । वह सच्चे अर्थों मे श्रमण है।

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