Book Title: Jain Darshan Adhunik Drushti
Author(s): Narendra Bhanavat
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 77
________________ वीरता के सर्वोपरि आदर्श हैं । भगवान् महावीर के समय मे वर्ण व्यवस्था विकृत हो गयी थी । ब्राह्मणो और क्षत्रियो का आदर्श अत्यन्त सकीर्ण हो गया था । ब्राह्मण यज्ञ के नाम पर पशु-बलि को महत्त्व दे रहे थे तो क्षत्रिय देश-रक्षा के नाम पर युद्धजनित हिंसा और सत्ता लिप्सा को बढावा दे रहे थे। महावीर स्वय क्षत्रिय कुल मे पैदा हुए थे। उन्होंने क्षत्रियत्व के मूल आदर्श रक्षा-भाव को पहचाना और विचार किया कि रक्षा के नाम पर कितनी हिंसा हो रही है, पोडा-मुक्ति के नाम पर कितनी पीडा दी जा रही है। सच्चा क्षत्रियत्व दूसरे को जीतने मे नही, स्वय अपने को जीतने मे है, पर-नियत्रण नही स्व-नियत्रण ही सच्ची विजय है। उन्होने सम्पूर्ण राज्य-वैभव और शासन सत्ता का परित्याग कर आत्म-विजय के लिए प्रयाण किया । वे सन्यम्त होकर कठोर ध्यान-साधना और उग्र तपस्या मे लीन हो गये । साढे बारह वर्षों तक वे आन्तरिक विकारो-शत्रुओ पर विजय प्राप्त करने के लिये सघर्प करते रहे । अन्तत वे आत्म-विजयी वने और अपने महावीर नाम को सार्थक किया। सच्चे क्षत्रियत्व और सच्चे वोर को परिभाषित करते हए उन्होने कहा-"एस वीरे पससिए जे वद्ध पडिमोयए।" अर्थात् वह वीर प्रशसनीय है जो स्वय वधन-मुक्त तो है ही, दूसरो को भी वधन मुक्त करता है। वीर है वह, जो स्वय तो पूर्णत स्वतत्र है ही, दूसरो को भी स्वतत्र करता है । वीर है वह, जो दूसरो को भयभीत नही करता अपनी सत्ता से, बल्कि उनको सत्ता के भय से ही सदा के लिये मुक्त कर देता है, चाहे वह सत्ता किसी की भी हो, कैसी भी हो। वीर का व्यवहार और मन स्थिति वीरता के स्वरूप पर हो वीर का व्यवहार और उसकी मनःस्थिति निर्भर है । वहिर्मुखी वीर की वृत्ति आक्रामक और दूसरो को परास्त कर पून अपने अधीन बनाने की रहती है। दूसरो पर प्रभूत्व कायम करने और लौकिक समद्धि प्राप्त करने की इच्छा का कोई अन्त नही । ज्यो-ज्यो इस ओर इन्द्रियाँ और मन प्रवृत्त होते हैं त्यो-त्यो इनकी लालसा बढती जाती है, हिंसा प्रति हिंसा मे वदलती है, क्रोध वैर का रूप धारण करता है और युद्ध पर युद्ध होते चलते है। युद्ध और सत्ता में विश्वास करने वाला वीर प्रतिक्रियाशील होता है, क्रूर और भयकर होता है। दूसरो को दुख, पीडा और यत्रणा देने मे उसे आनन्द आता है। बाहरी साधनोसेना, अस्त्र-शस्त्र, राज-दरवार, राजकोष आदि को बढाने मे वह अपनी शौर्यवृत्ति का प्रदर्शन करता है। उसकी वीरता का माप-दण्ड रहता है

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