Book Title: Jain 1973 Book 70 Paryushan Visheshank
Author(s): Gulabchand Devchand Sheth
Publisher: Jain Office Bhavnagar

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Page 65
________________ विषमता आगयी हैं । मिथ्याचार और ढांग का ही पोषण हो रहा है । अवगुणी दृष्टि ही हमारा अपतन कर रही है । जो देष दूसरे में देख रहे हैं, वे अपने में भी न्यूनाधिक अशा में विद्यम हैं ही, पर आत्मनिरीक्षण की प्रवृति नाने से उनकी ओर हमारा ध्यान हो नहीं जात । कभी किसी दोष की ओर जाता ही है तो उसे दोषों में शुधार न कर, टाल देने की ही चेष्टा करते हैं। इससे वे दोष बने ही रहते हैं । गलती ध्यानमें आते सुधार लेना जरुरी है। सार नही चलते तो उसका कोई अर्थ ही नहीं होता । अतः आत्मनिरीक्षणका अभ्यास डालिये । यही आत्मोत्कर्ष का प्रथम सोपान है । दिनभर में आपने क्या क्या अच्छे-बुरे कर्म किये, रात के समय उनको स्मरण कर अपने दोषांको सतर्कतासे कम करने का और हटाने का अभ्यास डालिये । आत्मनिरीक्षण के द्वारा आप बहुत सी गलतियों को सुधार सकेंगे । गलती करना अपनी कमजोरी है और उनको दूर करने वाले भो हम ही हैं तो फिर अभी ही सुधार के लिये तैयार क्यो न हो जायें ? हमारे हित, का काम है और हमारे करने होते तो होगा । पर्युषण पर्व तो आत्मलोचन का पर्व हैं उसमें आत्मनिरीक्षण प्राप्त करें । विश्वके बड़े से बड़े महापुरुषांने यह गलती की, वह गलती की, उन्हें ऐसा करना चाहिये था । इत्यादि, यों बडों के दे।ष बतलाते हुए उनके प्रति तुच्छतासूच छोटे मुँह बड़ी बातें करते हुए हमें तनिक भी संकोच नहीं होता । पर स्वयं करते कुछ हीं । नित्य प्रातःकाल हम सामा चार पत्र प ते हैं, रेडियो सुनते हैं, जगतभरकी आलेाचना व रते हैं | पर हमें अपनी कुछ भी चिन्ता नहीं । विश्वकी बातें जानने एव ं धारनेवाले हम सब अपने आत्मा के ज्ञान से सवथा कोरे हैं हमारे महर्षियों ने ठीक ही कहा है कि जहाँ तक निज स्वरुप का नहीं जाना, विश्वका समृवा ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी तत्वतः कुछ भी नही जाना; क्योंकि सारे ज्ञानका मूल दृश्य आत्माको उन्नत बनाना है, पर बाह्य ज्ञात अहकार के ही बढाता है । महापुरुष का यह अनुभव वाक्य भी साल हैं। आने सही है कि आत्महित में परहित स्वयं हो जाता है. पर केवल परहित में ' आत्महित होता भी है और नहीं भी होत।।' अर्थात् सबसे पहला काम आत्मसुधार व आत्मोन्नति है । यदि हम सदाचारी हैं तो जगत् का सदाचारके प्रति अपने आचरणद्वारा अपने आप आकर्षित कर रहे हैं। पर केवल दूसरों को लम्बे लम्बे उपदेश सुनाते रहेते हैं स्वयं तदनु 7 પયુ વણાંક ] : नैन : वर्तमान में हम सबकी दृष्टि दूसरों के दोषों अवगुणों की ओर ही अधिक लगी रहती है । दूसरों की आलोचना ही हमारा धांघा सा हो गया है, पर इससे नता अपना कल्याण होता है, न देशका । प्रत्येक व्यक्ति सावधानीसे आत्मनिरीक्षण करके अपने दोषों के दूर कर सद्गुणों का विकास करे, इसी में सबको ( जिसमें स्वयं भी सम्मिलित है ) भलाई है । अब आत्मनिरीक्षण सम्बन्धी संत प्रवर स्वामी शरणानंदजी के विचार उद्धृत कर रहा हूं । पाठक उनपर विचार करें । आत्म-निरीक्षण अर्थात् प्राप्त विवेक के प्रकाश में अपने दोषों को देखना आत्म-निरीक्षण का वास्तविक अथ है अपने पर अपना नेतृत्व करना । अपने निरीक्षण अपने बनाये हुए दोषों की निवृत्ति का सबसे पहला उपाय हैं। अपने निरीक्षण के बिना निर्दोषता की उपलब्धि सम्भव नहीं हैं, क्योंकि निजविवेक के प्रकाश में देखे हुए दोष सुगमता से मिटाये जा सकते हैं । अपना निरीक्षण करने पर असत्य का ज्ञान एवं सत्य से एकता और प्राप्तबल तथा योग्यता [१५

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