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पर्युषण-आत्मलोचनका महापर्व है असमें आत्मनिरीक्षण कीजिए
लेखक- : श्री अगरचंद नाहटा-बीकानेर पशु पक्षी और मानव में यदि कोई अन्तर जानते ही नहीं, तो उसके सुधारक प्रयत्न होगा है तो विवेकका है-विचार करने की शक्ति का है। ही कहाँ से ? हम न करने योग्य काम कर पशु में विार करने की शक्तिका तथा बुद्धि का बैठते हैं, न बोलने योग्य बोल देते हैं, नहीं विकास न होने के कारण उसकी प्रकृति गतानु- विचारने योग्य बातों की उलझन में फंसकर गतिक-एक दूसरे के अनुकरण का रूप ही अपना अहित कर बैठते हैं। आत्मनिरीक्षण द्वारा अधिक नजर आती है। उसमें संशोधन करना, इन सारी बातों की रोक थाम हेती है, अपनी नये नये तरीके निकालना तथा विचार करने गलती सुधारी जाती है, दोष दूर किये जा का बल उनमें हो नहीं सकता है । साधारण- सकते हैं. करने योग्य कार्य की नयी प्रेरणा तया मानव में भी विचार न करने पर गतानु- मिलती है अत: थोडा भी है उस पर नियमित गतिक प्रकृति ही अधिक पायी जाती है और रुपसे आत्मनिरीक्षण अवश्य करते रहिये । वास्तव में वह उसमें पशुत्व का अवशेष ही कोई व्यापारी बड़े से बडा भी व्यापार समझिये । इसका मतलब यह कभी भी नहीं करता रहता है, पर साथ ही उसके लाभ या कि अनुकरण करना है। तो विचार एवं समझ- नूकसान की ओर भी ध्यान रखता है। रोज पूर्वक करना चाहिए, यही मानवता की कसेाटी नहीं तो महिने में, नहीं तो वर्ष में एक बार है। इसीलिये ‘गतानुगतिको 'लोक' की उक्ति खाता तैयार कर आँकडा जोडकर अपने व्यापार प्रसिद्धि में आयी है। वास्तव मनुष्य होने के नाते का निरीक्षण अवश्य करता है । जे · नहीं करता हमें विचारों का विकास करते रहना अत्यन्त है, वह सच्चा व्यापारी नहीं है ध्यापारी के आवश्यक है कि कोई मी काम है। यह क्यों लिये हिसाब किताबकी जाँच अतर न्त आवश्यक किया जा रहा हैं ? इससे कितना लाभ है या है, इसके बिना उसका व्यापा: चौपट हो क्या हानि है ? इसमें क्या कमी है एवं कैसे जायगा। कौन सा व्यापार करने में कितना क्या सुधार करके, अधिक 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' नुकसान हआ था और वह क्यों 'आ, जबतक की प्राप्ति की जा सकती है ? अपनी प्रत्येक इसका ज्ञान नहीं होता, प्रगती हो ही नहीं प्रवृति पर इस प्रकार की जाँच पडताल ही सकती। इसी प्रकार हमने माना-संसाररुपी आत्मनिरीक्षण है और प्रत्येक मानव के लिये व्यापार-मडी में आकर क्या बुग किया, उचे इसकी उपयोगिता निर्विवाद है।
उठे या नीचे गिरे? इसका लेखा जोखा आत्महममें बहुत सी कमियाँ, दुर्बलताएँ और निरीक्षण द्वारा किया जाता है। प्रवाह में न दोष हैं। उनमें कमी न होने का प्रधान कारण बहकर आत्मनिरीक्षण करते हए आगे बढ़ते आत्मनिरीक्षण नहीं करना ही है। वास्तवमें जाइये। उसके अभाव में हम अपने देषांकी ओर ध्यान हमारे में आज बहिर्मुखी नि दिनोंदिन ही नहीं दे पाते । हम संज्ञा शून्य से हुए यत्र- बढ रही है। हम दूसरोंकी आहेचना करते वत् क्रिया करते रहते हैं पर उसमें जेो दोष रहनेके आदी हो गये हैं. पर आने दोषोंको और कमियाँ हैं, विचार न होने के कारण उनका जानते हुए भी भुलाने की व्यर्थ काशिश करते हमें अनुभव ही नहीं होता । जब किसी दोषको हैं। हमारी कहनी और कहनी में बहुत ही
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પર્યુષણાંક