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- जनधर्म में जैसे उपर बताया गया है, धर्म के ज्ञान समझ कर सिध्धांत के रुप में ते स्वीकार किया के साथ युक्ति और अनुयवाधारित आचरण आवश्यक पर उनमे आचरण पर वैसा भार न होने के माना गया है, इसी का परिणाम हैं कि अहिंसा कारण पूरा पालन नहीं किया जाता हैं। इससे और संयमत्याग को सब भारतीय धर्म महत्व दूसरा निष्कर्ष यह भी निकलता है कि भारतीय देते है परंतु जिस गहराई से इन सिध्धातों का जैनी संस्कृतिका त्याग प्रघान होना (जब कि पाश्चात्य गृहस्थ और मुनि पालन करते हैं अन्य धर्मो में सस्कृति भोग और शोषण प्रधान होकर संसार के कोई पालन नहीं करता । केवल जैनी या जैनां लिये विनाशकारी बन रही है ) न धर्म पर ही के प्रचार के कारण कुछ अजैन जातियां शुद्ध आधार रखता हैं। इन सब बाते। को एतिहासिक निरामिषाहारी है, शेष “अहिसा परमो धर्म' मंत्र शेधि खेाज करके जैन धर्म के वास्तविक रुप, उसके को स्वीकार करने वाले भी मांस खाते हैं। दुनिया पर ओर विशेष कर भारत पर वास्तविक इसी त ह त्याग और संयम में और विशेष कर कल्याण का हो प्रभाव संसार के स मने प्रगट करना ब्रह्मचर्य पालन में जैन साघु और साध्वियां चाहिये। जिससे भारत को और सार को उससे द्रढता रखते है ऐसा अन्यों में नहीं दिखता और लाम मिले। पाश्चात्य सभ्यता संभार को विनाश इसका प्रभाव गृहस्थों पर भी पड़ता हैं । साध्वियां को ओर ले जा रही है और वहा के लोग उसका तो अन्य धर्मो में होती ही नहीं है। साथ में अनुभव करने लगे है और भारतीय धर्मों को ही यह साघु साध्वियों का संगठन हजारों वष और प्रभावित हो रहे है। उनके सामने जैन से ससंगठित पारस्परिक रू। में चलती आई है। धर्म जैसा बुध्धि युक्ति अनुभव आ
इससे यह भी निकष्कण निकलता है कि उचित रुप में रखा जाय तो यह संसार का अहिंसा संयम तप (त्याग ) जैनों का निजी कल्याण कर सकता है। सिद्धांत है जब कि अन्य धर्मो ने उसका महत्त्व
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मासि : भावना२-१४००१ शन : ३२७१ (६ साना)
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