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चौथी धारानुसार साढ़े तीन वर्षको सख्त सजा और पाँच सौ रुपया जुर्मानेका दण्ड मुझे दिया गया । पर चूँकि सारी सजाएँ साथ-साथ चलीं, इसलिए वह केवल अठारह महनिकी रहीं । यह अवसर मेरालये एक स्वर्ण अवसर था, किन्तु मनुष्यका कर्म उसके आगे चलता है अर्थात् मनुष्य सोचता कुछ है और होता कुछ है । अभाग्यवश जेलमं मेरे कूल्हे में निरन्तर दर्द रहने लगा | जिसके कारण के चलने फिरने, बैटने, सोने दिसे अधिक कष्ट होने लगा । इसके अलावा मेरे पूज्य भाई साहब बीमार हो गये: जिसके कारण मेरा चित्त सदा चिन्तायस्त रहने लगा और दुर्भाग्यवश ता० ११ जनवरी सन १६३३ को उनका स्वर्गवास हो गया ।
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इस दूसरी जेल-यात्रा के समय में जितना समय मुझे मिलता रहा, उसमें अनेक जैनधर्मके दिगम्बर, श्वेताम्बर और स्थानकवासी सम्प्रदायक ग्रन्थों व पुस्तकांक पढ़ने व मनन करनेका सुअवसर प्राप्त हुआ । अपने अनुभव और इन पुस्तकों के आधारपर मैंने मुख्य-मुख्य विषयोंपर कुछ लिखना शुरू कर दिया । फलस्वरूप यह पुस्तक, जो आपके हाथों में है, तैयार हो गई ।
इस पुस्तक लिखते समय यह मेरा अवश्य विचार था कि कोई छोटा-सा जैनधर्मके विषय में ऐसा ग्रन्थ तैयार किया जाय, जिसको पढ़कर जैन और जैन बन्धु जैनधर्म के मुख्य