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( १३ ) नकोडि सम लय कह्यो, लहे नर केवल ज्ञान ॥३॥ नरत दुई एम केवली, आठ पाट पण एम ॥ मरुदे वा केवल लही, मुक्ति पहोंची केम ॥ ४ ॥ १०० ॥
॥ गाथा ॥
श्रसंबरो सेयंबरो वा, बुद्धो अहवा अन्नो वा ॥ सम जाव जाव अप्पा, लहइ मुरको न संदेहो ॥ १ ॥ कौरव हणे पांव थुणे, राग द्वेष नहिं त्यां ॥ दम दंत मुनि सम जावना, जो कृषि मंगलमांदे ॥ ॥ २ ॥ क्रोध हो उपशम धरी, मृडुयें मानज दोष ॥ सरलपणें माया हो, लोज करी संतोष ॥ ३ ॥ महीपति चक्री सुर हरि, सबल जोग सुर सार ॥ पण समतारस सुख तणा, कोइ न पामे पार ॥४॥ मत्सर मूकी जिन जपे, धरे ध्यान एक ठाय ॥ जो मति यावे निर्मली, तो जीव मुक्तें जाय ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ॥ चोपाईनी देशी ॥
॥ मुक्ति तथा जे अर्थी होय, नवपद लय लगा वे सोय ॥ पढें पुरुष पडिक्कमणुं करे, जोडी हाथ व्रत अंगें धरे ॥ १ ॥ हाथ हथेली जिमणी जेह, नर परजातें जोतो तेह ॥ गाबो कर ते नारी जोय, जाग्य ती परीक्षा पण होय ॥ २ ॥ श्रणबोल्यो
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