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गुरुवाणी-३
दीर्घदृष्टि धर्म करना नहीं, व्यसन छोड़ना नहीं और आशीर्वाद के लिए केवल गला फाड़ना है। यह कैसा मायावी और दम्भी संसार है। दीर्घ दृष्टि से विचार करो तो तुम्हे प्रतीत होगा की तुम कहाँ खड़े हो। स्थान रखने के लिए धर्म
बहुत से लोग हमारे पास आकर कहते हैं - साहेब, हमें आर्शीवाद दीजिए। हमारे पास बहुत धन आए और हम संघ निकालें। मैंने कहा - भाई! तुम्हें संघ निकालने की क्या आवश्यकता पड़ गई? क्या किसी ने यात्रा नहीं की? उत्तर मिला - साहेब, ऐसा नहीं है ! मित्र मण्डल में से किसी ने मूर्ति भराई है, किसी ने संघ निकाला है, किसी ने पूजन पढ़ाया है और मैं यदि कुछ भी नहीं करूंगा तो लोगों की दृष्टि में मेरा नीचा स्थान हो जाएगा। मैंने कहा - अरे भाई! समाज में अपना दबदबा दिखाने के लिए ही धर्म करना है या सद्गति प्राप्त करने के लिए! ऐसे एक-दो नहीं अनेक लोग इसी को धर्म मानते हैं । आशीर्वाद तो हमारा कल्याण हो ऐसा मांगना चाहिए इसके स्थान पर हम खूब धन कमायें ऐसा आशीर्वाद दो! धन को सम्मान देती दुनिया - सेठ की कथा
एक सेठ थे। पूर्वजन्मों में किए हुए सुकृत कार्यों के कारण ही इस जन्म में उन्हें अखूट लक्ष्मी मिली। जहाँ गुड़ होगा वहाँ मक्खियाँ आएंगी ही। इस कहावत के अनुसार सेठ को बहुत लक्ष्मी मिली थी इस कारण उसके मित्र भी बहुत थे। किन्तु पुण्य का बादल कब छिटक जाता है, कह नहीं सकते। पुण्य समाप्त हुआ। ज्यों-ज्यों लक्ष्मी धीमे-धीमे घटने लगी त्यों-त्यों उसके मित्र भी घटने लगे। अन्त में ऐसी स्थिति आ गई की अन्न
और दांत के वैर हो गया अर्थात् खाना मिलना भी मुश्किल हो गया। जो मित्र साथ में घूमने फिरने वाले थे, वे अब उधर झांकते भी नहीं थे। यह संसार कैसा स्वार्थी है ! सेठ को लगा की स्वदेश में तो मैं किसी प्रकार का धन पैदा नहीं कर सकता अतः परदेश जाऊँ। ऐसा सोचकर धन कमाने के लिए वह परदेश गया। क्षेत्र बदलने पर कितने ही कर्म अपना