Book Title: Guru Vani Part 03
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 249
________________ कृतज्ञता २२७ गुरुवाणी - ३ विचार किया कि आयम्बिल शाला में जाऊँगा तो मुझे खाने के लिए कोई भी नहीं रोकेगा। हमारे साधर्मिकों की यह दुर्दशा है। जैन समाज के पास अढलक लक्ष्मी होने पर भी ऐसे बहुत से साधर्मिक लोग आज की तारीख में भूखे सोते है, सुबह-शाम जैसे-तैसे करके अपना गुजारा चलाते है। दोपहर को एक टाईम पेट भर के आयम्बिल का खाना खाकर आते हैं.... ऐसे करते-करते वर्षों बीत गए.... इस भाई के भाग्य ने साथ दिया, व्यापार धन्धा जम गया, अच्छी आमदनी होने लगी । इसके जीवन में कृतज्ञता नाम का गुण था । इसलिए उसने विचार किया कि आयम्बिल शाला ने मुझे बचाया है, तो मुझे भी मदद करनी चाहिए। मुझे जीवित रखने वाली यही शाला है, इसलिए उसने स्वयं की कमाई आयम्बिल शाला में देनी प्रारम्भ की। ऐसा सुना है कि अब तो उसके द्रव्य से ही यह आयम्बिल शाला चल रही है । ये गुण महान् में महान् है । इस गुण को जीवन में अच्छी तरह से उतारना चाहिए। हमें याद रखना है कि मेरे ऊपर किन-किन के उपकार हैं.... जबकि हम तो यह याद रखते हैं कि किस-किस पर हमने उपकार किए हैं । इस विचारधारा को बदलेंगे तभी हम ऊँचे आ सकेंगे। हमारे द्वारा किए हुए उपकार को भूल जाना है और हमारे ऊपर दूसरों के द्वारा किए हुए उपकार को सारी जिन्दगी याद रखना है । कांटे नहीं फूल बनकर खिलना सीखो। ज्वाला नहीं ज्योत बनकर जलना सीखो। जीवन में आने वाली कठिनाई से, समझकर चलना सीखो।

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