Book Title: Guru Vani Part 03
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 257
________________ २३५ गुरुवाणी-३ परहित-चिन्तक हो? ऐसे शुभ विचारों से वह लोगों में अधिक प्रिय बनता है। परोपकारी मनुष्य लेने वाले को खोजता है। जबकि लेने वाला देने वाले की खोज करता है, किन्तु इस सम्पत्ति को दान करने का मन कब होता है? परिग्रह परिमाण किया हो तब ही। अन्यथा जितना कमाया उतना ही तिजोरी में डाल देते हैं। आवश्यकता हो या न हो.... संग्रह करते ही रहते हैं। जीवदया प्रेमी - भणसाली कीर्तिभाई भणसाली का नाम तो तुमने सुना ही होगा.... जीवदया प्रेमियों में उनका स्थान सर्वप्रथम आता है। आज तो वे करोड़पति हैं। कुछ वर्षों पहले ही उनका स्वर्गवास हो गया। एक समय ऐसा था कि वे स्वयं ही दुकान चलाते थे। क्योंकि परिस्थिति सामान्य थी। कोई भी ग्राहक दुकान पर कुछ भी वस्तु लेने के लिए आता और अमुक रुपयों की वस्तु लेता और यदि हिसाब में ग्राहक से चार आने भी लेने शेष रहते, तो ग्राहक कहता - कीर्तिभाई अब चवन्नी तो जाने दो। मेरे लड़कों के लिए मूंगफली लेने के काम आएंगे। तब कीर्तिभाई कहते - अबे! चार आने कोई मुफ्त में आते हैं क्या? पहले चार आने और दे और फिर जा। हिसाब में समझौता नहीं करते थे। पाई-पाई का हिसाब रखने वाले इस भाई के रोम-रोम में दूसरों का भला करने की भी भावना थी.... समय बीतता गया। उनके ऊपर लक्ष्मी देवी की कृपा हुई किन्तु उन्होंने पूर्व में ३०० रुपये का परिग्रह परिमाण व्रत स्वीकार किया था। मनुष्य किसी भी प्रकार का नियम लें तो उसमें परीक्षा की घड़ी तो आती ही है! उन्होंने परिग्रह परिमाण लिया और इधर व्यापार में लाखों रुपये आने लगे। ऐसा होने पर भी वे अपने नियम में अडिग थे। ३०० रुपये में दो जोड़ी कपड़ा और चप्पल लेते थे। तथा बारह महीने चलाते थे। व्यर्थ खर्च पर खूब अंकुश कर रखा था इसलिए खर्च बहुत कम था और लाखों कि कमाई थी, इसलिए लक्ष्मी को सार्थक करने के लिए जीवदया में खर्च करने लगे। दुष्काल के समय में गाँव-गाँव घूमकर पशुओं के लिए वाड़ा खड़ा

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