Book Title: Guru Vani Part 03
Author(s): Jambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
Publisher: Siddhi Bhuvan Manohar Jain Trust

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Page 241
________________ गुरुवाणी-३ २१९ कृतज्ञता आश्चर्य हुआ कि ऐसा सुखी मनुष्य भी मुझे कहता है कि मैं दुःखी हूँ। मैंने उससे पुनः पूछा - कैसे दु:खी हो? उसने उत्तर दिया - साहेब! यह लड़का तो मुझे पिता कहकर बुलाता भी नहीं है ! आप कैसे हो यह पूछने का भी उसके पास समय नहीं है। मित्रों के साथ ही घूमता-फिरता और बातचीत करता है किन्तु मेरे पास कभी भी पाँच मिनट के लिए भी नहीं बैठता है। प्रतिदिन मन ही मन में मैं दुःखी होता हूँ। इस धन और वैभव का क्या करना! निरन्तर मन में जलन ही होती है। वहाँ क्या? शास्त्रकार यहाँ हमें अंगुली निर्देश करके कहते हैं ऐसा नहीं होना चाहिए। अन्त में उस पुत्र ने अपने पिता को सन्तुष्ट नहीं किया, तो इसका लड़का उससे भी बढ़कर निकला। पिता तो असन्तोष में ही मृत्यु को प्राप्त कर गये, अब यह पुत्र जब पिता बना तो अपने पुत्र के साथ उसका बोलचाल का व्यवहार भी नहीं था। एक ही दुकान में बैठते थे किन्तु एक दूसरे के साथ कोई बातचीत नहीं होती थी। अन्त में उसके पिता को कैंसर की व्याधि हो गई। मृत्यु निकट है। पिता प्रतिदिन अपने बिस्तर के आस-पास नजर डालकर देखता है कि कहीं मेरा पुत्र बैठा हुआ हो? एक ही पुत्र है। पुत्र को देखने के लिए उसकी आँखें पथरा गई है किन्तु पुत्र तो दुकान से आने के साथ ही सीधा अपने कमरे में चला जाता है और अपनी पत्नी के साथ गप्पें मारने लगता है किन्तु पिता तो मरण शय्या पर है फिर भी वह देखने के लिए जाता नहीं। अन्त में पुत्र अब आएगा-अब आएगा इसी आशा में ही उसका पिता मृत्यु को प्राप्त हो गया। स्वयं ने अपने पिता को सन्तुष्ट नहीं किया था तो उसके पुत्र ने भी उसके कलेजे को ठण्डा नहीं किया। जगत् का नियम है कि जलाओगे तो जलोगे, सन्तुष्ट करोगे तो सन्तुष्ट होगे माता-पिता के स्वभाव की ओर हमें देखना नहीं है.... हमें तो केवल यह देखना है कि उनकी सेवा में किसी प्रकार की कमी न रह जाए। हमें तो केवल अपना कर्त्तव्य ही पूर्ण करना है। अब दूसरा उपकार है पति का, उसे आगे देखेंगे।

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