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कृतज्ञता
गुरुवाणी-३ करती हुई पत्नी को छोड़ना ही पड़ता है। वहाँ शास्त्रकार कहते हैं कि मातापिता की भक्ति होते हुए भी उनके विचारों पर सोच-विचार कर न्याय करना ही चाहिए। उनका कथन मात्र स्वीकार करें ऐसा नहीं है। किन्तु उनके खानेपीने की स्वास्थ्य की और किसी प्रकार की तकलीफ न पड़े इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिए। उनको ऐसा न लगे कि पुत्र तो बहू का हो गया, हमारे सामने झांकता भी नहीं। इस घर में बहू हमारी इज्जत भी नहीं करती है तो भी उसे कुछ नहीं कहता है। बस यही ध्यान रखने का है बाकि तो उनके साथ विचार मिले या नहीं मिले.... लड़का लीलालहर करता हो और मातापिता दुःखी हो उसी तरफ शास्त्रकारों ने अंगुली निर्देश किया है। माता-पिता को भी समझना होगा कि पुत्र की कठिनाई न बढ़ जाए ऐसा उन्हें नहीं करना होगा। स्वयं के स्वभाव को बदलना होगा।
दूसरा कारण यह है कि कितने ही पुत्र ऐसे होते हैं जो माँ-बाप का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते हैं। बहू के आते ही उसमें इतने डूब जाते हैं कि सुबह व्यापार के लिए जाते हैं और सायंकाल में आकर तुरन्त ही अपनी स्त्री के साथ अपने कमरे में चले जाते हैं.... दिन में माता-पिता ने खाना खाया या नहीं, उनका स्वास्थ्य कैसा है आदि जानकारी लेने की परवाह भी नहीं होती है। ऐसी सन्तानों को भावी जीवन में पश्चाताप का समय आता है। जैसी करणी वैसी भरणी
___ मैं एक परिचित भाई के यहाँ पगला करने के लिए गया.... अहमदाबाद शहर की बात है। उनका लड़का बड़ा चतुर था और व्यापार धन्धे में उसका नाम भी था। घर पर मोटरगाड़ी थी। स्वयं का बंगला था। वैभव के सब साधन थे। इज्जत वाला था। उसके घर जाकर मैं उसके पिता से मिला। मैंने कहा - .... भाई! तुम्हारे पुत्र ने तो बहुत नाम कमाया है। तुम तो बहुत सुखी लगते हो। वहीं , उसके पिता एकदम आकुलव्याकुल होकर बोले - कैसा सुखी? मैं तो महादु:खी हूँ। सुनकर मुझे