Book Title: Dwatrinshada Dwatrinshika Prakran Part 8
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Yashovijay of Jayaghoshsuri
Publisher: Andheri Jain Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 189
________________ २२३२ • परिशिष्ट-६. २०४७, २०४८, २०२८ (५६३) न्यायावतार ५६२, ५६५, ५६९, ५७०, ६१२ (५४०) न्यायकुसुमाञ्जलि २४७, ३३४, ३४३, ५७०, (५६४) न्यायावतारटिप्पन ५२८, ५६२ ११८१, १७५४ ।। (५६५) न्यायावतारवृत्ति ५२७, ५२८, ५२९, ५६५ (५४१) न्यायकुसुमाञ्जलिप्रकाश ११८१ (५६६) पञ्चकल्पभाष्य ५३, ८१, ८२, १६६, १८९, १९०, (५४२) न्यायखण्डखाद्य १२६, १३०, ५२६, ५९०, ५९४, ६५४, ६७५, १२२३, १४२७, १९०५, १९२७, ६०७, ६११, ७०६, ७३३, ७४५, ११५७, ११८२, १९५१, १९६६, १९८६ १७१०, १७१९, १७७१, १७७२, १७७५, १८३५, (५६७) पञ्चकल्पभाष्यचूर्णि ५५१, १९९१ २११७, २११९ (५६८) पञ्चतन्त्र ७५, ३६७, ५५१, ६३४, ६३६, (५४३) न्यायचन्द्रिका ८७४, २१४८ ६९३, ८५०, ११६१-११६२, १२०४, १३९८, (५४४) न्यायतात्पर्यटीका १७१८, २०३४, २११९ १४०३, १४२८, १४५७, १४८४, १५१७, १५५७ (न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका) | (५६९) पञ्चदशी १३७१,१६५९,१८९४, २१०४, २१२०, (५४५) न्यायतात्पर्यदीपिका २१५७ २१५० (५४६) न्यायबिन्दु ४४९ (५७०) पञ्चनिर्ग्रन्थिप्रकरण १९५१ (५४७) न्यायभूषण २१५४, २१५९ (५७१) पञ्चब्रह्मोपनिषद् २५५ (५४८) न्यायमञ्जरी ५४५, ८२२, ११८१, १५२९ (५७२) पञ्चमकर्मग्रन्थ ८७७ (५४९) न्यायरत्नाकर (श्लोकवार्तिकवृत्ति) २११४ (५७३) पञ्चलिङ्गिप्रकरण १४,१७,१८, २२७, ३८८, ४४०, (५५०) न्यायलीलावती २०९२, २१५४, २१३१ ५२०, ५९५, ६०७, ७९१, ९७३, १४५३, १६१४, (५५१) न्यायवार्तिक ४४७, २११९ १६२३, १६२४, १६३०, १६४०, १६४५, १६५८, (५५२) न्यायविनिश्चय १७५४ २११७ (५५३) न्यायविनिश्चयविवरण ७३४ (५७४) पञ्चवस्तुक २, ३५, ५३, ८५, ९०, ११३, (५५४) न्यायसङ्ग्रह २१४, ११५२ ११४, १२३, १३९, १४८, १६३, १७१, १८६, (५५५) न्यायसार ५७० २८०, २८३, ३०६, ३१३, ४२२, ५१०, ५१२, (५५६) न्यायसारवृत्ति २१५७ ५१४, ५२०, ६५४, ७११, ८९०, ८९३, १०७२, (५५७) न्यायसिद्धान्तमुक्तावली प्रभावृत्ति १४४, ७६२ १२१२, १२१६, १४०८, १८६६, १८८९, १८९२, (५५८) न्यायसूत्र ५४१, ५४४, ५४५, ५५२, ५६७, १९०४, १९१७, १९१८, १९२०, १९२७, १९२९, ७४८, ७९२, ७९३, ८१९, ९९३, १४२८, १५६२, १९३१, १९३७, १९८५, २००४ १७०२, १७५८, १७७२, २०६९, २०८५, २०८७, (५७६) पञ्चवस्तुकवृत्ति ३९३, १९१७ २०८९, २०९२, २०९३, २०९४, २१०४, २११९, (५७७) पञ्चशिख ७६९ २१२०, २१४२, २१६१ (५७८) पञ्चसङ्गहवृत्ति (दिगम्बरीय) १०२० (५५९) न्यायसूत्रभाष्य ७५५, १३९९, १४२४, १७०२, (५७९) पञ्चसङ्ग्रह ४४२, ८७६, ८९८, १०२७, १७६०, २११९, २१४५, २१५४, २१५९ ११७१, १२५०, १३९०, १८८० (५६०) न्यायसूत्रवार्तिक १६३१ (५८०) पञ्चसङ्ग्रहवृत्ति ८७६, १०१८, १३८९, १५२७ (५६१) न्यायालोक ५९५, ११८३, १७६५, १७७५, (५८१) पञ्चसूत्र २७२, २७७, २७९, ९५२, १०२७, २१०३, २१०९, २११५, २११७, २१२६, २१३०, १३९२, १५४०, १६६६, १८६५, १९०५, १९१७ २१३२, २१४९, २१६२ (५८२) पञ्चसूत्रवृत्ति २७७, २८५, १०२७, १८५७, (५६२) न्यायालोक भानुमतीवृत्ति ५९५, ११८३, १७६५, | १८८०, १९१७ १७७५, २१०३, २१०६, २१२१, २१२६, २१२९, (५८३) पञ्चाध्यायीप्रकरण १०६७ २१३१, २१३२, २१३५, २१४०, २१५१, २१५४ (५८४) पञ्चाशक १५, १८, ३५, ४२, ९०, ११३, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414