Book Title: Dwadash Parv Vyakhtyana Bhashantaram Author(s): Jinduttsuri Gyanbhandar Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar View full book textPage 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चातुमासिक ॥ १ ॥ न्तवादको दूर करनेके लिए आवश्यक शास्त्रमें कहा। शुद्ध मुद्रा और शुद्ध-रूपक-लक्षण चौथेभांगेके तुल्य द्रव्य-भाव-त. व्याख्यालिङ्ग-सहित इच्छा करनेवाले स्थाद्वाद-रुची धर्मार्थी प्राणियोंको सम्यग् धर्म-कार्य करना चाहिये। यहां ४ भांगे नम् कहे हैं सो दिखाते हैं।-१ अशुद्ध-रूपक अशुद्ध-मुद्रा, याने सिक्केमें चांदी खोटी होय और छाप भी खोटी होय, यह द पहला भांगा है, इसमें चरकपरिब्राजकादिक जानना, जिन्होंका ज्ञानादिक गुणभी अशुद्ध है, और वेषभी अशुद्ध है है। २-अशुद्ध-रूपक शुद्ध मुद्रा; इसमें पासत्था वगैरह जानना, जिसके ज्ञानादिक गुण शुद्ध नहीं है किन्तु वेष शुद्ध है। ३-शुद्ध-रूपक अशुद्ध मुद्रा, जिन्होंका ज्ञानादिक गुण शुद्ध होय और साधुका वेश न होय, ऐसे अन्त8|र्मुहूर्त तक द्रव्यलिङ्ग को नहीं ग्रहण करनेवाला प्रत्येक बुद्धादि जानना। ४-शुद्ध-रूपक शुद्ध-मुद्रा-द्रव्यभावदालिङ्गशुद्ध ऐसे साधु जानना, जिनका ज्ञानादिक गुण शुद्ध है और वेष भी शुद्ध है। इन ४ भागोंमें चौथा भांगा। शुद्ध होनेसे अङ्गीकार करने योग्य है। | अब श्रावकोंका प्रथम सामान्य प्रकारसे किञ्चित् कर्त्तव्य कहतेहैं-जिसका अन्त मुश्किलसे होताहै ऐसे अनन्त भवभ्रमणसे डरनेवाले और जैनमार्गका अनुसरण करनेवाले श्रद्धालु (श्रावकों) को निरंतर बहुत सावद्य ब्यापारको वर्जना चाहिये; विशेषकर फाल्गुन आदि महिनोंमें तिल वगैरह धान न रखना चाहिये, क्योंकि उसमें बहुत त्रस जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका सम्भव है । और, आम-प्रमुखका आचारका, जब जीव-संसक्त हो तव ACCORECA CA- For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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