Book Title: Dvadasharnaychakram Part 4
Author(s): Mallavadi Kshamashraman, Labdhisuri
Publisher: Chandulal Jamnadas Shah

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Page 9
________________ tय अने प्रमाणम अर्थ भेद: - वस्तु अनन्तधर्मात्मक छे । ते वस्तु एक धर्मद्वाराए पण जाणी शकाय छे; अने अनेक धर्मद्वाराए पण जाणी शकाय छे । अनेक धर्मद्वारा वस्तुनुं जे ज्ञान कराय ते प्रमाण कवा छे । एक धर्म द्वारा वस्तुनुं जे ज्ञान कराय ते नय कहेवाय छे । ते बन्नेथी वस्तुनुं ज्ञान थाय छे । 'प्रमाणनयैरधिगमः' ( तत्वार्थ ० १ - ६ . ) प्रमाणथी वस्तुनुं परिपूर्ण ज्ञान थाय छे, नयथी एक अंशनुं ज्ञान थाय छे, बन्ने वस्तुतत्त्वज्ञानमां उपयोगी छे । वस्तुनुं परिपूर्ण स्वरूप दर्शावनार प्रमाण छे, आंशिक स्वरूपने दर्शावनार नय छे। नयो एकान्तवादरूप होवाथी जगतने माटे अनुपयोगी छे । जगतने उपयोगी त्यारे ज बने के द्रव्य क्षेत्र काल अने भावथी तेनी नाना अवस्थाओनो विचार करवामां आवे, ते ज विचार अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद कहेवाय छे । जगतनो रक्षक होवाथी स्याद्वाद लोकनाथ पण कहेवाय छे । आज सारा नयचक्रनो अभिप्राय छे; एम स्थाने स्थाने अने अन्तमां सुचारु रूपथी निरूपण करी जैन शासननी सत्यता साबित करी छे । 1 1 चक्रनी उपमा अने नयचकनी उत्कृष्टताः - आ ग्रन्थरत्ननुं 'नयचक्र' नाम अन्वर्थ ज छे । सर्वोपरि चक्रवर्ती बनतां पलां जेम समस्त भारतना राजवीओने राजा जीती ले छे कारण के चक्ररत्न जेनी पासे होय तेनो पराजय कोई करी शकतुं नथी- ते सदा विजयी ज रहे छे आ ग्रन्थरत्ननुं पण एवं ज छे । जेम शस्त्रयुद्धमां चक्ररत्न श्रेष्ठ छे तेम शास्त्रयुद्धमां आ नयचक्ररत्न श्रेष्ठ छे । चत्ररत्नवडे राजा महाराजाओमां चक्रवर्ती थवाय 1 छे । तेम आ नयचक्रवडे वादिओमां चक्रवर्ती थवाय छे। सामर्थ्यनी आ समानता सिद्ध करवा ज प्रस्तुत ग्रन्थरत्नने नयचक्र नाम आपवामां आव्युं हशे एम अनुमान करी शकाय ! नयचक्रकार पण ग्रन्थना अन्तमां एमज कहे छे के 'जेम चक्रवर्तिओने चक्रवर्तिपणुं प्राप्त करवा सारूं चक्ररत्ननी आवश्यकता पडे छे तेम वादिचक्रवर्तिपणाने मेळावा माटे आ नयचक्ररत्ननी आवश्यकता छे' । खास नोंधपात्र वात तो ए छे के सामर्थ्यनी अपेक्षाए एनी अने चक्ररत्ननी वच्चे जेवी साम्यता छे तेवी ज साम्यता रचनानी अपेक्षाए एनी अने जैन दर्शनमां काली गणत्री माटे स्वीकाराएला कालचक्रनी वच्चे छे । नयचक्रमां बार अर छे, कालचक्रमां पण बार अर छे । जेम नयचक्रमां द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिक एम बे विभाग छे तेम कालचक्रमां पण उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी एम बे विभाग छे । कालचक्रना आ बन्ने विभाग छ छ अरने धरावे छे। ते क्रमसर एक पछी एक अविरामपणे आव्याज करे छे । तेथी नयचक्रने सामर्थ्यनी अपेक्षाए चक्ररत्ननी अने रचनानी अपे1 क्षाए कालचकनी उपमा यथार्थ पणे घटे छे । चत्ररत्नना धारक महासमर्थ चक्रवर्त्ती ऊपर संसारमां कोई पण विजय पामी शकतुं न होवा छतां कालचक्र एने सहजमां भरखी जाय छे तेथी चक्ररत्न करतां कालचक्री उत्कृष्टता सिद्ध थाय छे पण [ चक्रोमां] नयचक्ररत्न सर्वोत्कृष्ट छे । ते फक्त सर्वप्रकारना वादोनो ज विजय नथी अपावतुं पण भवभ्रमणमांथी आत्माने मुक्त करी कालचक्रनी असरथी आपणने पर करी तेना पर पण विजय प्राप्त करावे छे । आ ग्रन्थरत्न जैन न्याय ग्रन्थोमां अनन्य छे । तत्त्वनिर्णय करवा माटे नयोनी अति सूक्ष्म विचारणा करतो होवा छतां सुगम रचनावालो महान् ग्रन्थ बीजो एक पण नथी । आ ग्रन्थकारना नामे 'यदैव केवलज्ञानं तदैव दर्शनम्' ए मत खास प्रचलित छे, आ वातं केम प्रचलित थई ए प्रश्न ज बनी रहे छे । प्रस्तुत ग्रन्थमां केवलज्ञाननो १. पृ० २३२, ११६३, १२०१ Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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