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द्रव्य-संग्रह प्र०--विस्तार से द्रव्यासव के भेद बताइये ।
उ.-विस्तार से-ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, वेदनीय २, मोहनीय २८, आयु ४, नान ९ः, गोग: मौन 4 के मेट से १४८ प्रकार का है। सूक्ष्मदृष्टि से इनके भी परिणामों को तारतम्यता की अपेक्षा से संख्यात, असंख्यात भेद भी हो जाते हैं। इसलिए ग्रन्थकार ने द्रव्यानव को ( अणेय भेदो) अनेक भेद वाला कहा है।
भाषबन्ध व द्रव्यबध का लक्षण बज्मवि कम्मं शेण दुचेवणभावेण भावबन्धो सो। कम्मावपवेसाणं । अण्णोण्णपवेसगं इवरो ॥३२॥ अन्वयार्ष
(जेण! जिस । ( चेदणभावेण ) मिथ्यात्वादि रूप आत्मपरिणाम से। (कम्म) कर्म । ( बजादि ) वैषता है। ( सो ) वह । ( भावबंधो) भावबन्ध है । (दु) और । ( कम्मादपदेसाणं) कर्म और आत्मा के प्रवेशों का । ( अपणोण्णपवेसणं ) एकमेक होना । ( इहरो) द्रव्यबन्ध है। अर्थ
मिथ्यात्वादि रूप जिन चेतन परिणामों से कर्मबन्ध होता है वह भावबन्ध है और कर्म तथा आत्म-प्रदेशों का एकमेव होना द्रव्यबन्ध हैं।
प्रा-बन्ध किसे कहते हैं ?
उ०-जीव कषाय सहित होने से कर्म के योग्य कार्मण वर्गणारूप पुद्गल परमाणुओं को जो ग्रहण करता है, वह बन्ध है ।
प्र.-बन्ध के कितने भेद हैं ? उ-दो भेद हैं-१-भाववन्ध, २-द्रव्यबन्ध । प्रम-भावबन्ध किसे कहते हैं ?
उ.-जिन मिथ्यास्दादि आरम-परिणामों से कर्म बैधता है वह भावबन्ध कहलाता है।
प्र०-द्रव्यबन्ध किसे कहते हैं ? १०-जो कर्मवन्ध होता है उसे द्रव्यबन्ध कहते हैं ।