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द्रव्य संग्रह
प्र० भाव पाप और द्रस्थ पाप किसे कहते हैं ?
उ०- अशुभ भावों को धारण करने वाले जीव भाव पाप कहलाते हैं तथा कर्मों की अप्रशस्त प्रकृतियाँ द्रव्य पाप हैं ।
प्र०-आठ कर्मों के किसने भेद हैं ?
० आठ प्रकार के कर्म दो भेद वाले हैं- १ - घातिया कर्म, २- अघातिया कर्म ।
प्र० - घातिया कर्म किसे कहते हैं ?
० आत्मा के अनुजीवी गुणों को घात करने वाले कर्म घातिया कहलाते हैं । ये पाप रूप ही है।
प्र. अषातिया कर्म किसे कहते हैं ?
० - जो आत्मा के अनुजोवी गुणों का घात नहीं करते हैं वे अघातिया कर्म कहलाते हैं । अघातिया कर्मों में कुछ कर्म पुण्य रूप और कुछ कर्म पाप रूप कहलाते हैं ।
प्र०-पाप प्रकृतियाँ कितनी और कौन सो हैं ?
उ०-पाप प्रकृतियाँ १०० हैं - घातिया की ४७, असातावेदनीय १, नीचगोत्र १, नरकायु १ और नाम क्रम को ५० नरकगति, नरक मयानुपूर्वी, तिर्यग्गति १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १ जाति में से आदि की ४ जातियाँ संस्थान अन्त के ५, संहनन अन्त के ५, स्पर्शादिक अशुभ २०, उपधान १, अप्रशस्त विहायोगति १, स्थावर १, सूक्ष्म अपर्याप्त १, मनादेय १, अयशः कीर्ति ( अस्थिर अशुभ १, दुभंग १, दुःस्वर १, और साधारण १ कुल सौ ।
प्र०-पुष्य प्रकृतियाँ कितनी और कौन-सी हैं ?
४० - प्रसठ हैं - कर्मों की समस्त प्रकृतियाँ १४८ हैं उनमें से पापप्रकृतियाँ १०० घटाने से शेष रहीं ४८ । उनमें नामकर्म को स्पर्शादि शुभ प्रकृतियाँ मिलाने से सम्पूर्ण पुण्य प्रकृतियां अड़सठ होती हैं ।
प्र०- क्या पुण्य छोड़ने योग्य है ? यदि नहीं तो क्यों ?
उ०- नहीं, पुण्य कथंचित् प्रहण करने योग्य है, इसको सर्वया छोड़ना मुमुक्षु का कर्तव्य नहीं है क्योंकि पुण्य आत्मा को पवित्र करता है।
॥ इति द्वितीयोऽधिकारः ॥