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अंक ११]
दिगम्बर जैन ।
FDOG 0 पर्युषण पर्व व स्वार्थमय विचार ।
. (ले०-५० दीपचन्दजी वर्णी-सागर।) नित्यके समान इस वर्ष में भी पर्युषण पर्व दाल रोटी चावल, इतनेपर भी कहीं घी नहीं, भागया। नरनारियोंको वस्त्राभूषण सम्हालने, कहीं दूध नहीं, लावे कौन, और लावें तो मेवा मिष्ठान्न मादि भोज्य पदार्थ एकत्र करने पेटीमेंसे कल्दार भंजाना पड़े। इस लिये अपना तथा अपने सगे सम्बन्धीजनोंको मिलने मिलाने तो यही निश्चय है कि सहकुटुम्ब कहीं चार आदिकी तैयारियां प्रारन्म हो गई । मंदिरों में महिनेको मा डटना और आनन्दसे बिताना, भी. यथासंभव सजावट बनावट दिखाई देने बाद ८ मासके लिये विदाई लाना बस साल लगी। संगीत करनेवाले गवेये, अपनी तान खतम् । महा हा ! कैसा अच्छा धंधा है। इसमें तलवारोंको सम्हालने लगे, क्योंकि कहीं ऐसा न पूंनी लगे, न हाथ पांव हिलाना पड़ें। न हो कि समय कंठ बैठ जाय धोखा दे जाय, बल्कि उल्टे पांव पूजे जाते हैं (मूछोंपर हाथ व्रत जाय तो भले पर आ इ ई इ में फेर न फेरता हुबा) अच्छा ठीक है (चिट्ठियोंको सम्हापड़े। लवंग पान तथा भंगभवानी चरस, मादिका कता हुवा) चिट्ठियां तो कई स्थानोंसे भाई हैं भी गुप्त प्रबन्ध होने लगा। यह सब हो रहा क्योंकि नाम तो प्रसिद हो गया है परन्तु यहां था कि पंडितजी महाराजने भी अपने पोथीके तो अब इन नवीन पंडितों के मारे नाकों दम है पत्रे सम्हाले, भूले भाले पाठोंको फिरसे नवीन क्या करें ? इन नये सुधारकोंने हम लोगोंपर किये । सोचने लगे, लोग बड़े मूर्ख हैं, कहते तो कुठाराघात किया है। जहां तहां प.ठशालाएं हैं कि चौमासेमें व्यापार नहीं होता, मालकी विद्यालय खोल२ कर सैकड़ों पंडित तैयार खपत नहीं होती, क्योंकि व्याह समैया नहीं कर दिये हैं और अब भी इनको संतोष होते, परन्तु हमारी सहारंग तो अभी भाई नहीं हुवा । नित्य नवीन पंडित बना रहे है। सालभरकी रोजी पैदा तो अभी होगी। हैं। ये लोग जहां तहां पहुंचकर पाठशा. जहां १० दिन अथवा १ माह और यदि कहीं लाएं खुलवाते हैं, स्वाध्यायका उपदेश देते हैं बहुत हुवा, तो चौमासा ठहर गये कि पौवारह। शास्त्र सभाएं करके, द्रव्यानुयोग चरणानुयोग सो अमल में तो १० दिन पyषणकी बात है। करणानुशेगादिके ग्रन्थोंको पढने परीक्षा प्रधानी और शेष दिन तो जैसे घर रहे वैसे ही वहां बननेका उपदेश करते हैं, इन लोगोंने तो रहना होता है किंतु घरसे भी कहीं बढ़चढ़कर गवढा दिया । यदि ऐसा ही चलता रहा, तो आराम मिलता है। क्योंकि घर पर तो वही हमारे जैसे निरक्षर भट्टाचार्यों में तो पेट पालना