Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 17
________________ अंक ११] दिगम्बर जैन । बालक-पुत्रवत हैं फिर भला वह ऐसा क्यों जैसे कि सिंहव्याघ्रादिके और न वे.निहासे चाहने लगी और क्या मनोती सर्वदा सफलीभूत ही उतना काम लेते हैं जितना कि मुखसे । ही होती है ? यदि देवी किसीको मरनेसे बचा हमारे दांत नुकीले और चीडफाडकर खानेके दे तो ऐसा कौनसा प्राणी है जो मरनेकी इच्छा योग्य नहीं हैं। मांस खानेवाले प्रायः नासुर, करता हो ! धन, स्त्री मां और बाप इन सबसे क्षय, ज्वर और अंतीडीकी बीमारीसे मरते हैं। बढ़कर प्राण प्यारे हैं। मिस्टर जोनबुडका कहना है कि “ I main"माता पासे बेक्ष मांगे, कर बकरेका सांटा। tain that flesh-eating is unnecessary, अपना पृत खिलाबन चाहे पूत देजे का काटा। unnatural and unwholesome.' अर्थात् हो दिवानी दुनियां"। मैं दावेके साथ कहता है कि मांस भक्षण करना दुसरेका बुरा चाहकर क्या कभी किसीका निरुपयोगी, कुदरतके विरुद्ध और रोगोंको भला हुमा है ? जो एक बार किसीकी हत्या उत्पन्न करनेवाला है। हमें केवल शुद्ध सात्विक कर डालते हैं उनका हृदय बजका सा कठोर और उपयोगी भोजन करना चाहिए क्योंकि हो जाता है-हाथ नीचसे भी नीच कर्म करनेमें कहावत भी मशहूर है "जैसा आहार वैसा नहीं हिचकते। लोग यहां पर कह सकते हैं कि विचार " माप जैसा भोजन करेंगे वैसी ही साहब ! हम मारते नहीं इस लिए हमें खानेमें सदा आपकी भावनाएं बनी रहेंगी। क्या दोष ? पर इसके उत्तरमें हमारा नम्र इस महिंसा धर्मको सिर्फ जैनियोंने ही नहीं निवेदन है कि यदि आप खावें नहीं तो कसाई किन्तु प्रायः सभी धर्मावलम्बियोंने अंगीकार उन निरपराध प्राणियोंका वध ही क्यों करें ? किया है। अब हम यहां पर शास्त्रोंके कुछ एक शास्त्रकारने एक जीवके पीछे भाठ मनुष्य वाक्य उद्धृत करते हैं । जिससे साफ प्रगट हो पापके भागी बताए हैं सो बहुत ही ठीक है। जावेगा कि विशाल अहिंसामय धर्मके अनुसार उसका कहना है: आचरण करनेसे ही आत्माको शांति मिल "अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रिय विक्रयी। सकती है। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥" “यो बंधनवधक्लेशान् प्राणिनां न चिकीर्षति । अर्थात् “ मारनेमें सलाह देनेवाला, शत्रसेस सर्वस्य हितप्रेप्नुः सुखमत्यन्तमश्नुते ॥" मरे हुए जीवोंके अवयवोंको पृथक करनेवाला, __ (मनुस्मंति) मारनेवाला, मोललेनेवाला, बेचनेवाला, संवार "देवापहार व्याजेन यज्ञव्याजन येऽथवा । नेवाला, पकानेवाला, और खानेवाला ये सब नन्ति जन्तून मतघ्रणा घोरांते यान्ति दुर्गतिम् ॥ घातक ही कहलाते हैं।" "सर्वे वेदा न त कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत। मांसाहारियों की बासनाऐं सदा खोटी रहा सतीर्धाभिषेकाश्च यत् कुर्यातप्राणिनांदया। करती हैं। मनुष्य के दांत ऐसे नहीं बने हुए हैं (महाभारत"

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