Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ अंक ११] दिगम्बर जैन । योगकी कडाई छेड दी। कांग्रेसमें इस प्रस्ता तो यह कदापि सम्भव नहीं कि दूसग व्यर्थ वके पास होनेपर छोटे बड़े प्रायः सभी भारतीय ही हमें नष्ट करनेको उतारू हो । जैनधर्म यही पुरुष और स्त्रियोंने उस प्रस्तावके अनुसार कार्य उपदेश देता है कि मन वचन और कायसे करना अपना परम धर्म समझा। जहां देखो तहां सबकी भलाईका ध्यान रक्खो। प्रतिदिनकी राष्ट्रीय झंडा दिखलाई देता था। स्कूल पूनामें भी इसी मंत्रके अनुसार भाचरण करनेके और कालेजोंसे हमारों विद्यार्थी अपने २ लिए हमारे पूज्य महात्माओंका उपदेश है:स्वार्थको छोडकर जंगमें आभिडे थे । जिधर "क्षेमं सर्व प्रजानां प्रभवतु बलवान् देखो उधर चर्वे ही की तूती बोली जाती धार्मिको भूमिपालः । थी। क्या गरीब और क्या अमीर सभीने काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा खद्दर पहिनना अपना धर्म समझा । स्वरा. व्याधयो यान्तु नाशम् ॥ ज्यके गीत गाए जाते थे और गांवके लोग दुर्भिक्षं चौर मारी क्षणमपि जगतां इस दिनको ताकते थे जिस दिन इस पवित्र जैनन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्व सौख्य ____ मास्मभूज्जीवलोके । भूमिमें वे स्वराज्यको अपनी मांखोंसे देखलें । प्रदायी ॥" पर असलमें वह लडाई किसो जाति विशेषसे दूसरा जैनधर्मका मुख्य उपदेश यह है कि न थी। वह शांतिमय और अहिंसामय युद्ध तुम्हारी मात्मा अनन्त ज्ञान, मुख, वीर्य और था। वह मात्मिक शक्तिकी वृद्धि करानेके लिये दर्शनमयी है । तुम चाहो तो इस संसारके परम अस्त्र था और उप्तीमें कुछ इनेगिने महा- समस्त पदार्थों-तीनों कालोंकी भूत, भविष्यत शयोंको छोड़कर हम भारतीय असफल हुए। और वर्तमान पर्यायोंको 'दर्पण इव' जान सकते हिन्दु मुसलमानोंसे लडने लगे और मुसलमान हो । निप्त प्रकार दर्पणमें नेता मुख होगा हिन्दुओं का सत्यानाश करनेके लिये कटिबद्ध वैसा ही दिखलाई देगा, उसी प्रकार तुम्हें मंसार हो गए। ताजिओंके वक्त या अन्य किसी के समस्त पदार्थ साफ दिखलाई दे सकते हैं । हिन्दू त्योहार पर यह दृश्य देखने में आता है। तुम चाहो तो तुम उसी अवस्थाको प्राप्त हो अगर सर्कारी अफसर जरा भी छेड छाडी करें सकते हो जिप अवस्थाको तुम्हारे तीर्थकर तो लोग उनसे लड़ने में या उनका बु । चितवन (भगवान) प्राप्त हुए हैं । संक्षेपमें तुम्ही कर्मों के करने ही में अपने को कट्टर अप्सहयोगी समझते भोक्ता और तुम्ही कर्मोके कर्ता हो। यदि थे । महात्माजीने इस पर कितनी बार दुःख तुम्हारे कर्म शुभ होंगे । तुम्हें शुभ गति मिलेगी प्रकट न किया होगा। पर वह पारस्परिक और यदि अशुम हुए तो अशुभ गति मिलेगी। वैमनस्य बढ़ता ही गया और आन हम अपनेको दुपरे धर्मावलम्बी इस बातको बतलाते हैं कि उसी स्थलपर देखते हैं जिस स्थलपर कि पूर्वमें यदि कोका क्षय करते २ तुम बढ़ो तो भी तुम थे । यदि हम किसीका बुरा चितवन न करें ईश्वरावस्थाको प्राप्त नहीं हो सकते हां, उनके

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42