Book Title: Digambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 11
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 32
________________ दिगम्बर जैन । ० ] महेश, बुद्ध, इसाई और यवन भी क्यों न हों । २- पच परमेष्टीकी दो माला दिवसमें दो समय अवश्य जपनी चाहिये । ३ - स्नान सदा प्रातःकाल गरम और स्वच्छ जल से करना चाहिये चूंकि हमारे शस्त्रानुसार स्नान धर्मका एक अंग है । ५- भोजन करने के पूर्व अपने ईश्वरका स्मरण करना चाहिये और पूर्ण होनेपर धन्यवाद हो । (लेखक पं० प्रेमचंद पंचरत्न, भिंड) - प्रिय वाचको ! हमारे पूर्वाचार्योंने अहिंसा (दया) का स्वरूप इस प्रकार दर्शाया है ४ - स्नान बने वहांतक नदिया तालावपर ही दया मूलो भवेद्धर्मा, दया प्राणनिकंपनं । करना चाहिये । दया या पररक्षार्थ, गुणा शेषा प्रकीर्तितः ॥ अर्थात् दयाका लक्षण सम्पूर्ण प्राणियों की रक्षा करना बताया है, तथा दया ही धर्मका मूल है और जो दया दूसरोंकी रक्षा के लिए की जाती है उसके द्वारा कीर्ति आदि उत्तम गुण प्रगट हो जाते हैं । ६- भोजन नियमित समयपर और खूब चबा २ कर करना चाहिये । ७9- घंटी बजे तब भोजन नहीं करना चाहिये जब भूखकी घंटी बजे तो भोजन करना चाहिये । ८- दंतधावन सदा नीम या बबूलके दातोनसे करो और इन वस्तुओं को मिला करना चाहिये। चाक मिट्टी बादाम के छिलके का कोयला, लवण । ९ - प्रातः काल में थोड़ा २ नाकसे ठंडा जल पीने से गरुड़ के समान तीव्र दृष्टि होती है और ब्रह्मपतिके समान बुद्धि होती है । S. अहिंसा | १० - जिस प्रकार सीने, बुनने तथा अन्य मशीनोंको साफ करनेकी और संभालने की आवश्यकता है उसी प्रकार शरीररूपी मशीनको साफ और संभाळनेकी आवश्यकता है । भुरालाल जैनी । [ वर्ष १७ इसी लिये जिसकी प्रशंसा पूर्व - आचार्योंने अपने मुक्त कंठसे की है, ऐसी दया (अहिंसा) को कौन ऐसा पापात्मा होगा जो ग्रहण न करे, क्योंकि जिसके द्वारा हम पराये प्राणोंकी रक्षा कर सकते हैं, जिसके द्वारा हम दूसरोंको सताना महा पाप समझते हैं, जिसके द्वारा हम दूसरोंको निर्भीक बना सकते हैं, जिसके द्वारा हम अन्याथियोंका अन्याय सहन कर सकते हैं, जिसके द्वारा हम शत्रुको भी अपनाते हुए अपना प्रेम उस पर प्रकट कर सकते हैं, और जिसके द्वारा हम अनेकानेक हिंसामय विघ्न आते हुए भी अपनी धार्मिक नीतिका उल्लंघन नहीं करते वह केवल एक अहिंसा ही है । अहिंसा प्राणी मात्रकी हितैषिणी देवी है । वह अपने भक्तोंको सदैव अभयदान देती है ।

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