Book Title: Dharmshastra ka Itihas Shabdanukramanika Author(s): Pandurang V Kane Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou View full book textPage 4
________________ प्रकाशक की ओर से हमें 'धर्मशास्त्र का इतिहास' की 'शब्दानुक्रमणिका' प्रस्तुत करते समय हर्ष का अनुभव हो रहा है । इस बात का भी सुख और संतोष है कि हम इस महान ग्रंथ का पाँच खंडों में अनुवाद प्रकाशित करने में समर्थ हुए हैं, और इस प्रकार हिन्दी वाङमय को एक आवश्यकीय ग्रंथ से समलंकृत करने का सफल प्रयत्न हुआ है । धर्मशास्त्र का इतिहास' एक राष्ट्रीय ग्रंथ है, जो हमारे भारतीय जीवन और संस्कृति के अनेकानेक प्रश्नों और उपलब्धियों का निर्देश करता है । इस ग्रंथ में लेखक ने धर्म, धर्मशास्त्र, जाति, वर्ण और व्यक्ति के कर्तव्य, अधिकार, संस्कार, आचारविचार, यज्ञ, दान, प्रतिष्ठा, व्यवहार, तीर्थ, व्रत, काल, उत्सव आदि का विवेचन करते हुए सामाजिक और सांस्कृतिक विवरण देने का उपक्रम किया है। इस ग्रंथ की महत्ता और उपादेयता इस बात से भी परिज्ञात होती है कि इसमें वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों से आवश्यक संकेत-सत्र और संदर्भ एकत्र किये गये हैं। इस कृति के रूप में विश्वधिभुत विद्वान् लेखक भारतरत्न महामहोपाध्याय डॉ० पाण्डुरंग वामन काणे ने जो महनीय और गौरवपूर्ण ग्रंथ साहित्यजगत को प्रदान किया है वह हमारी साहित्यिक निधि है। श्री काणे के इस अंग्रेजी ग्रंथ का यह हिन्दी रूपान्तर हिन्दी के विद्वान लेखक और प्राध्यापक श्री अर्जुन चौबे काश्यप ने निष्ठा और सफलता के साथ सम्पन्न किया है। लेखक और अनुवादक दोनों ही आज दिवंगत हैं। यदि आज ये जीवित होते तो इस ग्रंथ के हिन्दी प्रकाशन से अवश्य ही तुष्ट और कृतकृत्य होते। 'धर्मशास्त्र का इतिहास' पाँच खंडों में पूर्ण हुआ है। इन पाँचों खण्डों में २,५८५ पृष्ठों की सामग्री प्रस्तुत की गयी है और कुल मिलाकर १२४ अध्याय हैं। इन अध्यायों के अन्तर्गत लेखक ने अधिकाधिक शास्त्रों का अध्ययन और ज्ञान की राशि प्रस्तुत करने को चेष्टा की है । लेखक ने कितना गंभीर अध्ययन और मनन किया है और उसकी दष्टि कितनी व्यापक और तीव्र रही है, इसको एक झलक इस 'शब्दानुक्रमणिका' से मिल सकती है। इस 'शब्दानुक्रमणिका' को भी खंडों के अनुसार पाँच भागों में विभक्त किया गया है। प्रत्येक खंड को 'शब्दानुक्रमणिका' अलग-अलग है। हमने इसमें उन्हीं शब्दों को रखने की चेष्टा की है, जिनके बारे में पाठक कुछ जानना चाहते हैं अथवा जिनका ज्ञान साधारण जन को अपेक्षित है। इसमें बहुत से नाम, ग्रंथ, वर्ण्य विषय एवं अपरिचित शब्द छोड़ दिये गये हैं, केवल इसलिए कि 'शब्दानुक्रमणिका' का कलेवर कागज की महर्घता और दुष्प्राप्यता के इस विकट समय में अधिक बड़ा न हो जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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