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ऋग्वेद में व्रत
प्रकाश नहीं डालते । 'ऋत' एवं 'व्रत' समानार्थक नहीं हैं। प्रो० आप्टे का मत ठीक नहीं है । 'ऋत' शब्द मारोपीय है, किन्तु व्रत शब्द हिन्द-ईरानी भी नहीं है, भारोपीय होने की तो बात ही निराली है ।
प्रो० आप्ट ने प्रतिपादित किया है कि 'व्रत' शब्द के अर्थ सम्बन्धी विकास के दो समानान्तर स्वरूप हैं, यथा दिव्य स्वरूप एवं मानवीय स्वरूप | किन्तु 'व्रत' शब्द के अर्थ में इस प्रकार का अन्तर नहीं स्वीकृत किया जा सकता। प्रो० आप्टे ने दिव्य स्वरूप के लिए छह तथा मानवीय स्वरूप के लिए चार, अर्थात् 'व्रत' के अर्थों की कुल मिलाकर दस दलों में बाँटा है। उन्होंने 'व्रत' के लिए कुल मिलाकर ६० अंग्रेजी अर्थ दिये हैं, जब कि ऋग्वेद में कुल २२० बार 'व्रत' शब्द आया है। हम इस विषय में यहाँ पर अधिक विस्तार में नहीं जायेंगे । अब प्रस्तुत लेखक अपने मत के अनुसार ॠग्वेद में प्रयुक्त 'व्रत' शब्द की व्युत्पत्ति उपस्थित करेगा । यह शब्द 'वृ' ( वरण करना) धातु से बना है । इस धातु से 'वर' (दुल्हा, जो किसी कन्या या उसके अभिभावक द्वारा कई व्यक्तियों में से चुना जाता है) शब्द निकला है (ऋ० ९।१०१।१४ एवं १०१८५/८ - ९ ) । वरण करना वरण करने वाले व्यक्ति की इच्छा या संकल्प पर निर्भर रहता है। अतः 'वृ' का तात्पर्य इच्छा करना भी है। इस प्रकार जब 'व्रत' शब्द 'वृ' से निकला है और उसके साथ 'त' लगा हुआ है तो 'व्रत' का अर्थ हुआ 'जो संकल्पित है' या केवल संकल्प या इच्छा । जो व्यक्ति शक्ति सम्पन्न या अधिकारी होता है उसकी इच्छा अन्य लोगों के लिए आदेश या कानून (विधि) होती है । भक्तजन विश्वास करते हैं कि देवों ने कुछ अनुशासन अथवा 'आदेश निर्धारित किये हैं जिनका वे स्वयं तथा अन्य जीवगण अनुसरण करते हैं। इससे 'विधि, विधान या कानून' कामाव स्पष्ट हो जाता है। किसी उच्चाधिकारी का आदेश आरोपित होता है और उसका अर्थ होता है आज्ञापालन करने की कर्तव्यता। जब आदेश पालित होते हैं, और उसी प्रकार कर्तव्य बहुत समय तक सम्पादित होते रहते हैं तो वे कर्तव्यता या अनुग्रह-बन्धन अर्थात् परम्परानुगत आचारों या व्यवहारों का रूप पकड़ लेते हैं। जब लोग ऐसा विश्वास करते हैं या अनुभव करते हैं कि उन्हें कुछ कर्म देवों द्वारा निर्धारित समझ कर करने चाहिए, तब धार्मिक उपासना एवं कर्तव्य के भाव की सृष्टि होती है । जब कोई व्यक्ति देवों के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए अपने आचरण या भोजन पर विशिष्ट रोक लगाता है तो वह पुनीत संकल्प या धार्मिक आचार-कर्म का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार 'वृ' से व्युत्पन्न 'व्रत' शब्द के कतिपय अर्थ हैं आदेश या विधि (कानून), आज्ञापालन या कर्तव्यता, धार्मिक या नैतिक व्यवहार, धार्मिक उपासना या आचरण, पुनीत या गम्भीर संकल्प या स्वीकरण तथा आचरण-सम्बन्धी कोई मी संकल्प । ॠग्वेद में जहाँ भी 'व्रत' शब्द आया है उसका अर्थ उपर्युक्त अर्थों में ही बैठ जाता है ।
यहाँ पर हम टिनी एवं प्रो० आप्टे द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों एवं मतान्तरों की व्याख्या स्थानाभाव के कारण नहीं कर सकेंगे। इतना ही कहना पर्याप्त है कि प्रो० आप्टे ने 'व्रत' शब्द की जो व्युत्पत्ति 'वृत्' धातु से की है वह उद्धरणों से सिद्ध नहीं होती । आज से लगभग कम-से-कम २५ शताब्दियों पूर्व यास्क ने 'व्रत' की जो व्युत्पत्ति 'वृ' (वृक् धातु) से की, वह अधिकांश विद्वानों को मान्य है ।
यहाँ पर 'ऋत', 'व्रत' एवं 'धर्मन्' शब्दों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं उनके अर्थों का स्पष्टीकरण आवश्यक है । 'ऋ' के तीन अर्थों की व्याख्या इस महाग्रन्थ के चतुर्थ खण्ड में की जा चुकी है। 'व्रत' की व्याख्या ऊपर हो चुकी है। ऋग्वेद में 'धर्मन्' प्रयुक्त हुआ है, न कि 'धर्म' । 'धर्म' शब्द की व्याख्या इस महाग्रन्थ के प्रथम खण्ड के आरम्भ में की जा चुकी है। ऋग्वेद में 'धर्मन्' शब्द कभी-कभी पुल्लिंग में तथा बहुधा विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है (ऋ० १।१८७।१, १०१९२२ ) । १०।२१/३ ( त्वं धर्माण आसते) में पुल्लिंग है, अन्य स्थानों पर यह स्पष्ट रूप से नपुंसक लिंग में है ( अतो धर्माणि धारयन् ) १।२२।१८, और देखिए ५।२६।६, ९ ६४ | १ | इन मन्त्रों
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