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धर्मशास्त्र का इतिहास
मध्य एवं वर्तमान काल के अधिकांश प्रचलित व्रत काम्य हैं, अर्थात् ऐसे व्रत जिनसे इस लोक में या कभी-कभी परलोक या दोनों में किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो । अधिकांश में व्रत सांसारिक हैं, किन्तु उन पर धार्मिक रंग चढ़ा हुआ है, यद्यपि कुछ अनुशासन लगे हुए हैं, यथा उपवास, पूजा, ब्रह्मचर्य, सत्य भाषण, किन्तु उनमें भौतिक दृष्टिकोण पाया जाता है; ये सामान्य जन की इच्छाओं से अभिप्रेरित हैं। काम्य बातें बहुत-सी हैं, उनके विषय में थोड़ा प्रकाश डाला जाता है। अग्निपुराण ( १७५।४४ एवं ५७ ) में उनकी चर्चा इस प्रकार है--धर्म (पुण्य), सन्तति, धन, सौन्दर्य, सौभाग्य, सदाचरण, कीर्ति, विद्या, आयु, शुचिता, आनन्दोपभोग, स्वर्ग, मोक्ष आदि । कल्पतरु ( व्रत, पृ० १-२ ) के अनुसार व्रत से ब्रह्मलोक, शिवलोक, वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है, आनन्द एवं विजय का उपयोग होता है; कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुगों में सुजय राम, धनञ्जय एवं विक्रम नामक राजाओं को लोक-शासन व्रतों से ही प्राप्त हुआ, शंकर ने हरि से कहा है कि व्रत मनुष्य के लिए सर्वोत्तम कृत्य है; प्रत्येक युग
बहुत से नियम व्यवस्थित हैं, किन्तु वे व्रतों के सोलहवें भाग को भी नहीं पा सकते; विक्रम की गुणवती पुत्री वसुन्धरा, दशार्ण देश में रहती हुई, व्रतों के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकी, देवों, ऋषियों, सिद्धों आदि ने उपवास द्वारा ही परमोच्च पूर्णता प्राप्त की है।
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व्रतों का श्रेणी - विभाजन
इस अध्याय में ऐसे ही व्रतों का उल्लेख है जो अधिकतर स्वारोपित या ऐच्छिक हैं, अतः उन्हें तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पद्मपुराण (४१८४१४२-४४ ) में आया है -- 'अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अकल्कता ( कुटिलता या छाद्मिकता से दूर रहना ), इन्हें मानस व्रत कहा जाता है, जिससे हरि प्रसन्न रहते हैं; दिन में केवल एक बार भोजन करना, नक्त (केवल एक बार सूर्यास्त के उपरान्त भोजन करना ), उपवास ( दिन भर का), अयाचित ( ऐसा भोजन जो बिना माँगे मिल जाय), इन्हें मानवों के लिए कायिक व्रत कहा जाता है; वेदाध्ययन, विष्णु के नामों को बार-बार स्मरण करना ( विष्णु-कीर्तन), सत्यभाषण, अपैशुन्य ( पीठ पीछे निन्दा न करना ), इन्हें वाचिक व्रत कहा जाता है । "
दूसरा विभाजन काल पर आधारित है, यथा एक दिन का, पाक्षिक, मासिक, एक ऋतु का, उत्तरायण या दक्षिणायन, वार्षिक या कई वर्षों वाला व्रत । व्रत एक वर्ष का या एक वर्ष से अधिक का या जीवन भर का हो सकता है । किसी मास में किये जाने वाले व्रतों के बारे में कहते समय मलमास ( अधिक मास ) के प्रश्न पर भी विचार करना चाहिए। इसके विषय में हम काल आदि के विभाग में विवेचन करेंगे। धर्मशास्त्रों में तिथियों के विषय में लम्बा विवेचन पाया जाता है और इसके विषय में हम यहीं विवेचन करेंगे। काल एवं मुहूर्तों की व्याख्या आगे के विभाग में की जायगी। व्रतों में अधिकतर तिथि व्रत हैं । हेमाद्रि में वारव्रतों, नक्षत्रव्रतों, योगव्रतों, संक्रान्तिव्रतों, मासव्रतों, ऋतुव्रतों, संवत्सरव्रतों एवं प्रकीर्णक व्रतों का अनुक्रमिक उल्लेख पाया जाता है। और देखिए कृत्य - कल्पतरु । अधिकतर व्रत -सम्बन्धी ग्रन्थ आरम्भ में कुछ सामान्य बात कहने के उपरान्त तिथिव्रतों से ही व्रतविवेचन का आरम्भ करते हैं । समयप्रदीप वाले व्रत - विवेचन का क्रम भिन्न है । वह गणेश- व्रतों के विवेचन के
५. अहिंसा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्यमकल्कता । एतानि मानसान्याहुर्व्रतानि हरितुष्टये ॥ एकभुक्तं तथा नक्तमुपवासमयाचितम् । इत्येवं कायिकं पुंसां व्रतमुक्तं नरेश्वर ॥ वेदस्याध्ययनं विष्णोः कीर्तनं सत्यभाषणम् । अपैशुन्यमिदं राजन् वाचिकं व्रतमुच्यते ॥ पद्म० (४१८४।४२-४४) । वराह० (३७।४-६)।
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