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धर्मशास्त्र का इतिहास
कुछ व्रत ब्रह्मचारियों के लिए नियत थे (वेद-व्रत) और कुछ स्नातकों के लिए। इस विषय में हमने खण्ड दो में पढ़ लिया है। ईसा की प्रथम शताब्दियों पूर्व एवं पश्चात् व्रतों की व्यवस्था प्रचलित थी. जैसा कि आप० ध० सू०, कालिदास के नाटकों, मृच्छकटिक एवं रत्नावली से सिद्ध होता है। देखिए आप० ध० सू० २८ १८- २०।३-९। शाकुन्तल (अंक २) में कथन है कि दुष्यन्त की माता ने व्रत किया था। विक्रमोर्वशीय में रोहिणीचान्द्रायण-व्रत की ओर संकेत है। रघुवंश (१३।६७ ) में आसिधार व्रत का उल्लेख है । मृच्छकटिक (अंक १) में अमिरूपपति नामक व्रत का, जो भर्तृ-प्राप्ति व्रत के सदृश है, वर्णन है । रत्नावली में (अंक १ के अन्त में ) मदनमहोत्सव उल्लिखित है । लगता है, ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों में व्रतों की संख्या अधिक नहीं थी । कालान्तर में इनकी संख्या लगभग एक सहस्र हो गयी । तिथियों एवं ज्योतिष सम्बन्धी विषयों के आरम्भिक निबन्धों में एक है राजा भोज (११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) द्वारा लिखित राजमार्तण्ड, जिसमें लगभग २४ व्रतों का उल्लेख है । लक्ष्मीधर (१२वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) के कृत्यकल्पतरु में लगभग १७५ व्रतों का उल्लेख है । शूलपाणि (१३७५१४३० ई०) के व्रतकालविवेक में केवल ११ व्रतों का वर्णन है। हेमाद्रि ने ७०० व्रतों के नाम बतलाये हैं । इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी के अन्त में, जब भारत के अधिकांश भागों पर बाह्य आक्रामकों ने अधिकार कर लिया था, मन्दिर तोड़-फोड़े जा रहे थे, सहस्रों जन विधर्म में सम्मिलित किये जा रहे थे, उन दिनों विद्वान् एवं अभिज्ञ लोग विशाल बौद्धिक कार्य ( हेमाद्रि का महाग्रन्थ २२०० पृष्ठों में छपा है) में संलग्न थे, या व्रतों, यात्राओं एवं श्राद्धों पर अतुल सम्पत्ति व्यय कर रहे थे और इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके चतुर्दिक् राजनीतिक एवं धार्मिक भय खड़े हो रहे हैं।
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महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज द्वारा सम्पादित व्रतकोश ( सरस्वती भवन सीरीज ) में १६२२ व्रत हैं। यह संख्या भ्रामक है, क्योंकि कहीं-कहीं एक ही नाम के विभिन्न पर्याय आ गये हैं और कई व्रत एक ही व्रत के अन्तर्गत आ गये हैं तथा उनमें कुछ शान्तियों, उत्सवों एवं स्नानों के नाम परिगणित हो गये हैं। यदि ठीक से नामकरण किया जाय तो व्रतकोश में लगभग १००० व्रतों की ही गणना हो सकेगी।
व्रत धारण करने पर उसे समाप्त अवश्य कर लेना चाहिए, क्योंकि प्रमादवश छोड़ देने पर बड़े कष्टदायक प्रतिफल भुगतने पड़ते हैं। छागलेय ने घोषित किया है-यदि व्यक्ति प्रथम अंगीकार कर लेने पर आगे मोहवशात् व्रत का त्याग कर देता है तो वह जीता हुआ चाण्डाल बन जाता है और मरने पर कुत्ता । ऐसी स्थिति में, जब व्यक्ति लालचवश, असावधानी के कारण या प्रमादवश व्रत को तोड़ देता है तो उसे पुनः करने के लिए तीन दिनों का उपवास करना पड़ता है तथा मुण्डन कराना होता है । निर्णयसिन्धु के मत से उसे व्रत का शेषांश केवल पूरा करना होता है या शूलपाणि के अनुसार फिर से आरम्भ करना पड़ता है । वराहपुराण में आया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन व्रतारम्भ करता है और मूर्खतावश छोड़ देता है तो वह बुरी दशा को प्राप्त होता है ।
व्रत के मध्य में मृत्यु हो जाने से व्रत फल नष्ट नहीं होता। अंगिरा ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई व्यक्ति किसी लाभ के लिए धार्मिक कर्म करता है और पूर्ण होने के पूर्व मर जाता है, तो मृत्यु के पश्चात् भी उसे पूर्ण फल प्राप्त होता है। ऐसा ही मनु ने भी कहा है ।
अशौच में कोई व्रत नहीं करना चाहिए। किन्तु विष्णुधर्म सूत्र ( २२ ४९ ) में ऐसी व्यवस्था है कि अशौच से राजा को राजकीय कर्तव्यों के पालन में कोई बाधा नहीं पड़ती और न व्रती को ही अपने व्रत के सम्पादन में । लघु- विष्णु में ऐसा आया है कि व्रत, यज्ञ, विवाह, श्राद्ध, होम, पूजा, जप में आरम्भ कर दिये जाने पर अशौच नहीं लगता, किन्तु आरम्भ होने के पूर्व अशौच का प्रभाव पड़ता है, अर्थात् तब ये कर्म आरम्भ नहीं किये जा सकते । यही बात याज्ञ० (३।२८-२९) में भी है। शास्त्रों में ऐसा आया है कि सभी जीवों, रोग, प्रमाद (कार्य को टालना
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