________________
धर्मशास्त्र का इतिहास नहीं करेगा; तो यह व्रत नहीं कहा जायगा, क्योंकि व्रत में संकल्प प्रमुख विषय है। यदि कोई दुर्बल बुद्धि का व्यक्ति या अज्ञानी व्यक्ति बिना किसी संकल्प के व्रत करे तो वह मात्र शरीर-क्लेश कहा जायगा न कि व्रत। कृत्यरत्नाकर ने अपने पूर्ववर्ती विद्वानों द्वारा उपस्थापित व्रत की कई परिभाषाएँ दी हैं, जिनमें देवेश्वर की परिभाषा यों है--'व्रत वह है जो व्रतकाण्ड में परिगृहीत है।' यह परिभाषा परिभाषा-सम्बन्धी प्रयास की निराशा की द्योतक है और जिज्ञासु को पूर्व स्थिति में ही छोड़ देती है। संकल्प का व्रत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है; यह लघु-विष्णु की उक्ति के आधार पर कहा गया है--'ऋरिवकों का वरण यज्ञ का प्रारम्भ है, संकल्प व्रत का और जप (किसी इष्ट देवता के सम्मान में) मन्त्रों का।२ शूलपाणि ने श्रीदत्त के समान ही व्रत की परिभाषा की है। लक्ष्मीवर ने कृत्यकल्पतरु में व्रत की परिभाषा नहीं की है। प्रो० के० वी० रंगस्वामी आयंगर ने कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड की भूमिका में कहा है कि रघुनन्दन ने अपने व्रततत्त्व में व्रत की परिभाषा करने का प्रयास छोड़ दिया है। किन्तु प्रो० आयंगर ने यह नहीं देखा कि रघुनन्दन ने अपने एकादशीतत्त्व में व्रत की परिभाषा की मीमांसा की है और इसी से उन्होंने अपने व्रततत्त्व में उसे पुनः नहीं लिखा। रघुनन्दन नारायण एवं श्रीदत्त की परिभाषाएँ उल्लिखित करते हैं और व्रत को संकल्प मानने को सन्नद्ध नहीं होते, प्रत्युत यह कहते हैं कि व्रत का तात्पर्य है भाँति-भांति के कृत्य जिनके लिए संकल्प किया जाता है, व्रत एक नियम है (नियन्त्रित करने वाली विधि) जो शास्त्रों द्वारा व्यवस्थित है, उपवास द्वारा विशिष्टीकृत है, यह प्रत्येक नियम नहीं है, यथा ऋतुकालाभिगामी स्यात् (याज्ञ० ११७९, मनु ३।४५)। व्रतप्रकाश (वीरमित्रोदय का एक अंश) ने व्रत को एक विशिष्ट संकल्प माना है जो विद्वानों को व्रत के रूप में भली भाँति विदित है, जैसे कि मन्त्र वे हैं जो विद्वानों के बीच में मन्त्रों के रूप में विख्यात हैं। धर्मसिन्धु (पृ० ९) ने व्रत को पूजा आदि से समन्वित धार्मिक कृत्य माना है। यद्यपि प्रत्येक व्रत के मूल में और इसके लिए आग्रह के फलस्वरूप कोई संकल्प अवश्य होना चाहिए, अतः ऐसा लगता है कि रघुनन्दन' एव धर्मसिन्धु की परिभाषाएँ व्रत के लोकप्रिय अर्थ की द्योतक हैं। किसी व्रत में कई बातें सम्मिलित रहती हैं, यथा स्नान, प्रातः सन्ध्या, संकल्प, होम, पूजा (इष्ट देवता की), उपवास, ब्राह्मणों, कुमारियों या विवाहित स्त्रियों, दरिद्रों को भोजन-दान, गौ, धन, वस्त्र, मिठाई आदि का दान तथा व्रत की अवधि के भीतर आचरण-सम्बन्धी कुछ विशिष्ट नियमों का परिपालन। इनमें कुछ का वर्णन विस्तार के साथ आगे किया जायगा, किन्तु कुछ यहीं वर्णित होंगे।
___ अग्निपुराण (१७५।१२) में आया है कि व्रत करने वाले को प्रति दिन स्नान करना चाहिए, सीमित मात्रा में भोजन करना चाहिए, गुरु, देवों एवं ब्राह्मणों का सम्मान करना चाहिए, क्षार, क्षौद्र, लवण, मधु एवं मांस का त्याग कर देना चाहिए। देवल का कथन है कि पूर्व रात्रि में बिना कुछ खाए स्नान करने के उपरान्त मन को एकान करके, सूर्य तथा अन्य देवों का आवाहन करके व्यक्ति को प्रातःकाल व्रत का आरम्भ करना चाहिए। मध्यकाल के लेखकों ने व्रत के विषय में पूर्वकालीन संक्षिप्त उल्लेखों को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर उपस्थित किया है। व्रतकालविवेक का कथन है कि संकल्प के पूर्व नारायण-स्मरण एवं नमस्कार होना चाहिए। गणेश की पूजा के विषय में मतभेद है। व्रतकालविवेक में आया है कि गणेश-पूजा अन्य देवों की पूजा के पहले करना कोई आवश्यक नहीं है।
१२. प्रारम्भो वरणं यज्ञे संकल्पो वतजापयोः। नान्दीश्राद्धं विवाहादी आखे पाकपरिक्रिया॥ लघुविष्ण, मदनपारिजात (१० ४२३) द्वारा उद्धृत, स्मृत्यर्थसार (पृ० १७), व्रतकालविवेक (१० ९)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org