Book Title: Dharm Sarvasvadhikar tatha Kasturi Prakaran
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 8
________________ ४ अर्थ- जे माणस परस्त्री ने मातानीपेठे जुए बे, तथा परद्रव्यने ढेकांनीपेठे जुए बे, तथा सर्व प्राणीश्रीने विषे जे पोताना श्रात्मानीपेठे जुए बे; तेज तत्वथी जोनारो बे ॥ ११ ॥ - हिंसा सर्वजीवानां, सर्वज्ञैः परिभाषिता ॥ इदं हि मूलं धर्मस्य, शेषस्तस्यास्ति विस्तरः ॥ १२ ॥ - सर्व जीवोप्रते दया राखवी, एम सर्वज्ञझोए कहेतुं बे, केमके, ते हिंसाज धर्मनुं मूल बे; ने बाकीनां सत्यादिक तो तेनो विस्तार बे ॥ १२ ॥ हिंसा प्रथमं प्रोक्ता, यस्मात्सर्वजगत्प्रिया ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, कर्तव्या सा विचक्षणैः ॥ १३ ॥ - हिंसा (दया) सर्वथी पेहेली कहेली बे; केमके, ते समस्त जगतने प्रिय बे; माटे विचक्षण पुरुषोए सर्व प्रयने करीने ते दयाज करवी ॥ १३ ॥ यथा मम प्रियाः प्राणा, स्तथा तस्यापि देहिनः ॥ इति मत्वा प्रयत्नेन, त्याज्यः प्राणिवधो बुधैः ॥ १४ ॥ अर्थ-जेम मारा प्राण मने वहाला बे, तेम ते प्रापीने पण तेना प्राण वहाला बे; एम मानीने प्रयत्नपूर्वक पंकितोए जीवहिंसानो त्याग करवो ॥ १४ ॥ मरिष्यामीति यद्दुःखं, पुरुषस्येह जायते ॥ शक्य स्तेनानुमानेन, परोऽपि परिरक्षितुम ॥ १५ ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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