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मृत्युबोध के बाद ही महोत्सव संभव
पहला प्रश्नः
आपने कहा कि जीवन का सत्य मृत्यु है। फिर मृत्यु का सत्य क्या है?
जी वन विरोधाभासों से बना है। जीवन विरोधाभासों के बीच तनाव और
- संतुलन है। तनाव भी और संतुलन भी। यहां प्रकाश चाहिए हो तो अंधेरे के बिना न हो सकेगा। यहां जीवन चाहिए हो तो मृत्यु के बिना नहीं हो सकेगा। तो एक अर्थ में अंधेरा प्रकाश का विरोधी भी है और एक अर्थ में सहयोगी भी।
ये दोनों बातें खयाल में रखना। विरोधी इस अर्थ में कि अंधेरे से ठीक उलटा है। सहयोगी इस अर्थ में कि बिना अंधेरे के प्रकाश हो ही न सकेगा। अंधेरा पृष्ठभूमि भी है प्रकाश की।
और ऐसा ही जीवन-मृत्यु का संबंध है। मृत्यु के बिना जीवन की कोई संभावना नहीं। मृत्यु की भूमि में ही जीवन के फूल खिलते हैं। और मृत्यु में ही टूटते हैं, गिरते हैं, बिखर जाते हैं। जैसे पृथ्वी से ऊगता है पौधा, खिलता है, बड़ा होता है; पृथ्वी के सहारे ही खिलता और बड़ा होता है। और एक दिन वहीं गिरकर पृथ्वी में ही कब्र बन जाती है। ऐसे ही मृत्यु से जीवन निकलता है और मृत्यु में ही लीन हो जाता है।
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