Book Title: Dhammapada 10
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 298
________________ हम अनंत के यात्री हैं इसलिए वस्तु का सवाल नहीं है, कितनी वस्तु का भी सवाल नहीं है, भाव का सवाल है। किसी गुरु ने अपने एक युवा संन्यासी को जनक के पास भेजा था। बहुत वर्ष गुरु के पास रहा, कुछ सीखा नहीं। फिर गुरु ने कहा, अब ऐसा कर, तू जनक के पास जा, शायद वे तुझे कुछ सिखा सकें। तो वह बड़ी आशा से गया। वर्षों तक संन्यासियों के बीच रहा था, समझा भला न हो, लेकिन शब्द तो खूब सीख ही गया था। बुद्धि चाहे न जगी हो, स्मृति तो खूब भर ही गयी थी-पंडित हो गया था, प्रज्ञावान न हुआ हो। जब पहुंचा जनक के दरबार में तो उसने देखा कि सांझ हो गयी है और जनक अपने दरबार में बैठा है, वेश्याएं नाच रही हैं अर्धनग्न, शराब के प्याले ढाले जा रहे हैं; सम्राट बीच में बैठा है, दरबारी आसपास बैठे हैं, बड़े गुलछर्रे चल रहे हैं। वह संन्यासी तो बड़ा हैरान हुआ। उससे तो रहा नहीं गया। उसने कहा, महाराज! हम तो ज्ञान की तलाश में आए थे, यहां तो अज्ञान का नंगा नृत्य हो रहा है। और आप मुझे क्या सिखाएंगे! हद्द हो गयी यह मेरे गुरु की। मालूम होता है मुझे कोई सजा दी। मुझे यहां किसलिए भेजा, यह किन कर्मों का फल कि आपके दर्शन करने भेज दिया? और गुरु के पास नहीं सीख सका, जो कि अपरिग्रही हैं, जिन्होंने सब छोड़ा, तो आप से क्या सीखंगा, जो कि यहां महल में बैठे राग-रंग के बीच? जनक ने कहा, महाराज, आ गए हैं तो रात तो आतिथ्य ग्रहण करें। सुबह बात होगी। सुबह जनक ने उठाया, पीछे ही बहती नदी में स्नान करने ले गया कि स्नान कर लें, पूजा कर लें, फिर बैठकर सत्संग होगा। फकीर तो भागा-भागा था, वह तो जल्दी जाना चाहता था। पर उसने कहा, अब सम्राट की बात इनकार भी नहीं की जा सकती-ज्ञानी भला न हो, अज्ञानी तो पक्का है; इनकार करो, कुछ ज्यादा गड़बड़ करो, नाराज हो जाएगा, गर्दन उतरवा दे, कुछ भी कर सकता है! सुन लो इसकी, एकाध दिन गुजार लो। दुष्ट-संग में पड़ गए हैं। ऐसा सोचता हुआ वह जनक के साथ नदी पर गया। दोनों ने वस्त्र किनारे रखे, जनक के वस्त्र बहुमूल्य थे, हीरे-जवाहरात जड़े थे, फकीर की तो एक लंगोटी थी, वह उसने किनारे रख दी, एक लंगोटी पहनकर पानी में उतरा।। जब दोनों स्नान कर रहे थे तब अचानक फकीर चिल्लाया कि अरे देखते हैं, आपके महल में आग लगी है! बड़ी लपटें उठीं, महल धू-धू कर जल रहा है। जनक ने देखा और उसने कहा, हां, लगी है। लेकिन हिला भी नहीं, चला भी नहीं, भागा भी नहीं। फकीर ने कहा, आप खड़े कैसे हैं? अरे दौड़ो, बचाओ! तो जनक ने कहा, महल है, मेरा क्या? जब आया था तो बिना महल के आया था, जब जाऊंगा तो बिना महल के जाऊंगा। और उस फकीर ने कहा, तुम तुम्हारी जानो, मेरी लंगोटी महल के पास ही रखी है, मैं तो चला। वह भागकर उसने कहा कि एक ही लंगोटी 285

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