Book Title: Dhammapada 10
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 354
________________ जीवन का परम सत्य : यहीं, अभी, इसी में 'शील का पालन सुख है।' शील का अर्थ होता है, दूसरे को सुख मिले, ऐसा व्यवहार करना। पाप और शील में वही फर्क है जो नकारात्मक नीति और विधायक नीति में होता है। पाप का अर्थ होता है, दूसरे को दुख न मिले। यह नकारात्मक, यह पहला कदम, कि मुझसे दूसरे को दुख न मिले। इतना सध जाए, तो फिर दूसरा कदम शील है, कि मुझसे दूसरे को सुख मिले। जब तुम दूसरों को दुख न दोगे, तो दूसरे तुम्हें दुख न देंगे। यह आधी यात्रा है। जब तुम दूसरों को सुख देने लगोगे, सब तरफ से सुख की धाराएं तुम्हारे ऊपर बरसने लगेंगी, महासुख होगा। तो पाप से बचे, शील में संलग्न हो, श्रद्धा को जगाए, वही श्रद्धा अंत में ज्ञान बन जाती है। यही महासुख है। बुद्ध कहते हैं, स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना सुख है। सुखं याव जरा सीलं सुखा सद्धा पतिट्ठिता। स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना। सुखो पचाय पटिलाभो पापानं अकरणं सुखं ।। स्वर्ग कहीं और नहीं है, नर्क भी कहीं और नहीं है। स्वर्ग है अपनी श्रद्धा में प्रतिष्ठित हो जाना, और नर्क है अपने ऊपर श्रद्धा खो देना। स्वर्ग है इस ढंग से जीना कि तुम्हारे तरफं सुख की धाराएं अपने आप बहें। इस जगत में प्रतिध्वनियां होती हैं। तुम जो कहते हो, वही तुम पर लौट आता है। तुम गाली दो, गालियां लौट आती हैं। तुम प्रेम बांटो, प्रेम लौट आता है। इस जगत में तो प्रतिध्वनि होती है। तुम दुख बांटो, दुख घना हो जाएगा। तुम सुख बांटो, सुख घना हो जाएगा। जो दोगे, अंततः वही पा लोगे। तुम जो बोओगे, वही काटोगे। यह छोटा सा सूत्र है, लेकिन कितना बड़ा! इस छोटे से सूत्र पर जीवन महाक्रांति से गुजर जाता है। स्वर्ग तुम्हारे हाथ में है और नर्क भी तुम्हारे हाथ में है-तुम निर्माता हो। अगर तुमने अब तक दुख पाया है, तो स्मरण करना, अपने ही कारण पाया है। दूसरे पर दोष मत देना। दूसरे पर जो दोष देता है, वही अधार्मिक। जो यह स्वीकार कर लेता है कि मैं दुख पा रहा हूं तो जरूर मैंने ही बोया होगा, वही धार्मिक। और धार्मिक के जीवन में विकास होता है, अधार्मिक के जीवन में विकास नहीं होता। क्योंकि अधार्मिक सदा कहता रहता है, दूसरे मुझे दुख दे रहे हैं। इसमें कैसे विकास होगा? पहली तो बात, दूसरे तुम्हें दुख दे नहीं रहे। दूसरी बात, दूसरे दुख दे रहे हैं तो 341

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