Book Title: Dhammapada 10
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 288
________________ ध्यान का दीप, करुणा का प्रकाश एक फकीर की अपनी बगिया में काम करते वक्त खुरपी खो गयी। वह कुछ पानी पीने भीतर गया झोपड़े में, लौटकर आया, खुरपी नदारद! पास से एक पड़ोस का छोकरा जा रहा था। उसने उसको देखा, उसने कहा कि यही है चोर, इसकी चाल से साफ मालूम हो रहा है कि चोर है। इसका ढंग देखो, आंख बचाकर जा रहा है, उधर देख रहा है, इसके पैर की आहट बता रही है कि चोर है, यही है। मगर अब एकदम से उसको पकड़ना ठीक भी नहीं। वह जांच रखने लगा। तीन दिन तक देखता रहा, जब भी यह लड़का निकले, इधर-उधर जाए तो वह देखे और उसे बिलकुल पक्का होता गया कि है चोर यही, हर चीज ने प्रमाण दिया उसको कि यह चोर है। एक तो आंख से आंख नहीं मिलाता, कहीं-कहीं देखता है, चलता है तो डरा-डरा चलता है, चौंका-चौंका सा मालूम पड़ता है, खुरपी इसी ने चुरायी है। फिर चौथे दिन खोदते वक्त खुरपी उसको मिल गयी झाड़ी में। वह लड़का फिर निकल रहा था, उसने देखा, अरे, कितना भला लड़का है! जरा भी चोर नहीं मालूम होता! अब भी वह वैसे ही चल रहा है, मगर अब दृष्टि बदल गयी। तुम जरा खयाल करना, एक आदमी के प्रति तुम एक धारणा बना लो, फिर उस धारणा से देखो, तो तुम पाओगे उसी धारणा का समर्थन करने के लिए तुम्हें बहुत कुछ मिल जाएगा। फिर तुम्हारी धारणा बदल दो, तुम अचानक पाओगे कि वह आदमी बदल गया। क्योंकि अब तुम्हारी नयी धारणा के अनुकूल तुम जो पाना चाहोगे वह मिल जाएगा। बुद्ध कहते हैं, सम्यक-दृष्टि उसको कहते हैं जो निर्धारणा है। जिसकी कोई धारणा नहीं। अच्छी नहीं, बुरी नहीं। समदृष्टि। न इस तरफ सोचता है, न उस तरफ। तराजू ठीक बीच में कांटा अटका है, न यह पलड़ा भारी है, न वह पलड़ा भारी है। ऐसी समतुल स्थिति का नाम समदृष्टि। जिसने मान ही लिया, बिना खोजे, बिना सोचे, बिना विचारे, बिना अनुभव किए, वह असम्यक-दृष्टि या मिथ्या-दृष्टि। बुद्ध ने उनसे इतना ही कहा कि तुम देखना सीखो, अपनी आंख को जरा साफ करो, अन्यथा तुम्हीं भटकोगे, तुम्ही दुख पाओगे। दूसरा दृश्यः भगवान के कौशांबी में विहरते समय की घटना है। बद्ध-विरोधी धर्मगुरुओं ने गुंडों-बदमाशों को रुपए-पैसे खिला-पिलाकर भगवान का तथा भिक्षुसंघ का आक्रोशन, अपमान करके भगा देने के लिए तैयार कर लिया था। वे भिक्षुओं को देखकर भद्दी गालियां देते थे। नहीं लिखी जा सकें, ऐसी, शास्त्र कहते हैं। जो लिखी जा सकें, वे ये थीं—भिक्षु निकलते तो उनसे कहते, तुम मूर्ख हो, पागल हो, झक्की हो, चोर-उचक्के हो, बैल-गधे हो, पशु हो, पाशविक हो, नारकीय हो, पतित हो, विकृत हो, इस तरह के शब्द भिक्षुओं से कहते। 275

Loading...

Page Navigation
1 ... 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362