Book Title: Dhammapada 10
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 279
________________ एस धम्मो सनंतनो कभी जिन कहा, कभी भगवान कहा, कभी अवतार कहा, कभी पैगंबर कहा, कभी ईश्वर-पुत्र कहा, सिर्फ इतनी सी बात को अलग करने के लिए कि यह आदमी कुछ और ढंग का था। यह और आदमियों जैसा आदमी नहीं था। इसे सिर्फ आदमी कहना न्यायसंगत नहीं होगा। ये बच्चे समझा भी नहीं सकते थे, मगर समझ गए। खयाल रखना, समझा सकने से और समझने का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है। अक्सर तो ऐसा होता है कि जो समझा सकते हैं, समझ नहीं पाते। और जो समझ पाते हैं, समझा नहीं पाते हैं। गूंगे का गुड़। छोटे-छोटे बच्चे थे, स्वाद तो आ गया, शब्द उनके पास शायद थे भी नहीं कि वे कह सकें, क्या हुआ? लेकिन भूल गए खेल इत्यादि। वे सब खेल छोटे हो गए। __जीसस ने कहा है, जो छोटे बच्चों की भांति होंगे, वे ही मेरे प्रभु के राज्य में . प्रवेश कर सकेंगे। शायद जीसस ऐसे ही बच्चों की बात कर रहे थे। छोटे बच्चों की भांति होंगे। भगवान को समझने के लिए छोटे बच्चे की भांति होना जरूरी है। जो बड़े हो गए हैं, उनको फिर लौटना पड़ता है, फिर छोटे बच्चे की भांति होना पड़ता है। ___इसलिए तो संत की अंतिम अवस्था में संत बिलकुल छोटे बच्चों जैसा हो जाता है। जो परमहंस की दशा है, वह छोटे बच्चे की दशा है। फिर से जन्म हो गया। इसलिए हमने इस देश में ज्ञानी को द्विज कहा है, दुबारा पैदा हुआ। एक तो वह जन्म था जो मां-बाप से मिला था, और अब एक जन्म उसने स्वयं को दिया है। वह फिर से बच्चा हो गया। फिर वैसा ही सरल, फिर वैसा ही सहज। . ये छोटे-छोटे सरल बच्चे, जो बड़े-बड़े पंडितों को होना कठिन होता है, इन छोटे-छोटे बच्चों को हुआ। वे भूल गए अपना खेल। तुम तो बुद्ध के पास भी जाओ तो तुम्हारा खेल तुम्हें नहीं भूलता। बुद्ध के पास बैठे रहते हो, सोचते हो अपनी दुकान की। बुद्ध के पास बैठे रहते हो, सोचते हो अपने घर की। बुद्ध के पास बैठे रहते हो, सोचते हो हजार और बातें। ये छोटे बच्चे तो भूल ही गए इनका सारा खेल। पड़े रह गए होंगे रेत में इन्होंने जो घर बनाए थे! बाहर भूल गए तो भूल ही गए। भीतर गए तो फिर बाहर आए ही नहीं। फिर बुद्ध के पास ही बैठे रहे। वे दिनभर भगवान के पास रहे। शायद संध्या हुए भगवान ने स्वयं कहा होगा कि बच्चो, अब घर वापस जाओ। ऐसा प्रेम तो उन्होंने कभी जाना न था। प्रेम प्रेम में बड़ा फर्क है। जिसे तुम संसार में प्रेम कहते हो, वह प्रेम नहीं है। वह प्रेम का झूठा सिक्का है। प्रेम के नाम पर कुछ और चल रहा है। अहंकार चल .रहा है प्रेम के नाम पर। प्रेम का लबादा ओढ़े हिंसा चल रही है, वैमनस्य चल रहा है। प्रेम के आभूषणों में सजा हुआ न मालूम क्या-क्या-परिग्रह, दूसरे पर मालकियत करने की राजनीति चल रही है। प्रेम की ओट में अप्रेम चल रहा है। अप्रेम 266

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