Book Title: Dashvaikalik Tatha Uttaradhyayan
Author(s): Harshchandra Maharaj
Publisher: Atmaram Mohanlal Sheth
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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ।
समुयारणं उछमेसिजा, जहासुत्तमणिन्दिय । लाभालामम्मि संतुटे, पिण्डवायं चरे मुणी !। १६॥ अलोले न रसे गिद्ध, जिब्भादन्ते अमुच्छिए। . न रसट्टाप भुजिजा; जवणट्ठाए महामुणी ।। १७ ॥ प्रचणं रयां चेव, वन्दणं पूयणं तह ।। इड्ढीसकारसम्मा, मणसा वि न पत्थए ॥ १८ ॥ सुकमाणं झियाएञ्चा, अणिगाणे अकिंचणे । वोसटकाए विहरेज', जाव कालस्स पजत्रो ।। १६ ॥ निज्जूहिऊण आहारं, कालधम्मे उवट्टिए। जहिऊण माणुस्सं बोन्दि, पहू दुक्खा विमुच्चई । २० ॥ निम्ममे निरहंकारे, वीयरागो अगासवो। संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिचुए॥२१॥ त्ति बेमि।
॥ अणगारज्झयणं समत्तं ॥ ३५ ॥ ॥ श्रह जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं ।। जीवाजीवविभत्ति मे, सुणेहेगमणा इओ। जं जाणिऊण भिक्खू, सम्मं जयइ संजमे ॥ १॥ जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे, आलोगे से वियाहिए ॥ २ ॥ दबओ खेत्तयो चेव, कालो भावो तहा। परूवणा तेसिं भवे, जीवाणमजीवाण य ॥३॥ रूविणों चेव रूबी य, अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणो य चउबिहा ॥ ४॥
१. चइऊण । २. मुणेहमेगमणा । ३. समणे ।

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