Book Title: Dashvaikalik Tatha Uttaradhyayan
Author(s): Harshchandra Maharaj
Publisher: Atmaram Mohanlal Sheth

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Page 234
________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र] [१६६ परिमण्डलसंठाणे, भइए से उ वरणओ। गन्धो रसो चेव, भइर फासोवि य ॥४३॥ संठाणो भवे वट्टे, भइए से उ वराणयो। गन्धो रसनो चेव. भइए फासओवि य ।। ४४ ॥ संठाण यो भवे तसे, भइए से उ वराणो । गन्ध यो रसओ चैव, भइए फासओवि य ॥ ४५ ॥ संठाणो य च उरंसे, भइए से उ वरण अो। गन्धो रसश्रो चेव, भइए फासोवि य ॥ ४६॥ जे प्राययसंठाणे, भइए से उ वरण श्रो। गन्धो रसओ चेव, भइए फासोवि य ॥ ४७।। एसा अजीवधिभत्ती, समासेण वियाहिया । इत्तो जीवविभत्ति, वुच्छामि अणुपुव्यसो।। ४८ ॥ संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया सिद्धा णेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तय ओ सुण ॥ ४९॥ इत्थीपुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे य, निहिलिंगे तहेव य ।। ५० ।। उक्कोसोगाहणार य, जहन्नमज्झिमाइ य । उड्ढ अहे य तिरियं च, समुद्दम्मि जलम्मि य ॥ ५१ ॥ दस य नपुंसएसु, वीसं इत्थियासु य । पुरिसेसु य अट्ठसयं, समएणेगेण सिज्झइ ।। ५२ ।। चत्तारि य गिहलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेण अट्ठसंय, समएणेगेण सिज्झइ ॥ ५३॥ उक्कोसोगाहणाए य, सिज्झन्ते जुगवं दुवे , .... चत्तारि जहन्ना ए मज्झे अठुत्तरं सयं ।। ५४ ।। ... १. जयमझे।

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