Book Title: Chaturtha Stuti Nirnaya Part 1 2
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Nareshbhai Navsariwala Mumbai

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Page 5
________________ चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ ॥ ॐ नमः सिद्धं ॥ अहँ । प्रस्तावना (१) विदित होके अनादि कालसें प्रचलित हुआ भया ऐसा परमपवित्र जो जैनमत है, परंतु इस हुंडा अवसप्पिणी कालमें भस्मग्रहादि अनिष्ट निमित्तोंके मिलनेसें अशुभ मिथ्यात्व मोहादि निबिड कर्मों के उदयवाले बहोत जीव होते भये, वो बहुलकर्मी जीवोमेंसे कितनेकने तो अपने कुविकल्पके ही प्रभावसें, और कितनेक तो परभवका भय न रखनेसें मात्र अपने मुखसें जो कोइ वचन निकाला होवे तिसकों कोइ असत्य प्रपंचसेंभी सत्य करके लोकोंके हृदयमें स्थापन करना चाहीये ऐसें हठ कदाग्रहोसें, और कितनेकने तो कोइ दूसरेसें इर्ष्या होनेसें उसकों जूठा बना कर अपना नाम बडा करनेके लीये, और कितनेकने तो अपने अरु अपने पक्षवालेके तरफ धर्म माननेवाले बहोत मनुष्योंका समुदाय मिलें तो पेट भराइ अच्छी तरहसें चले इसी वास्तें मतभेद करके कोइ नवीन पंथ प्रचलित करना ऐसी बुद्धिसें, इत्यादि औरभी विचित्र प्रकारके हेतुयोंसें यह शुद्ध आत्मधर्म प्रकाशक जैनमतकें नामसें भी प्रस्तुत अनेक प्रकारके पुरुषोने अनेक तरहके मत उत्पन्न करे थे तिनमेंसें कितनेक तो नष्ट हो गये, अरु कितनेक वर्तमान कालमें विद्यमान है, इतने परभी संतोष न भयाके अबतो बस करे? आगेही बहुत जनोने जैनमतके नामसें जैनमतकों चालनी समान भिन्न भिन्न मार्गका प्रचार कर रखा है। इतनाही बहोत हुआ तो फेर अब हम काहेकों नवीन मत निकाले ? ऐसी बुद्धि जिनोमें नही है वे अबभी नवीन पंथ निकालनेंमें उद्यम करते है। संप्रतिकालमें तपगच्छके यति रत्नविजयजी अरु धनविजयजीने तीन थुइका पंथ निकाल रखा है। यह दोनो यतिने तीन थुई आदिक कितनीक वातों उत्सूत्र प्ररुपणा करके मालवे और जालोरके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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