Book Title: Chando Ratnamala
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 151
________________ प्रथवानसभ रसनाः काले भोगाश्चलं धनयौवनं , कुरुत सुकृतं यावन्नेयं तनुः प्रविशीर्यते । किमपि कलना कालस्येयं प्रधावति सत्वरा , तरुण हरिणी संत्रस्तेव प्लवप्रविसारिणी ॥ प्रथवासुमुखि लघवः पंच प्राच्यास्ततो दशमान्तिकं , तदनु ललितालापे वणौं यदि त्रिचतुर्दशौ । प्रभवति पुनर्योपान्त्यः स्फुरत्करकंकणे , यतिरपि रसैर्वेदैरश्वैः स्मृता हरिणीति सा ॥ [इति श्रुतबोधे श्लोक-३६ ] हरिणी | सुमुखि | लघव: | पंच प्रा च्यास्ततो | दशमा | न्ति | कं छन्दः | ॥ | ॥ | sss | sis | ॥ |। (६७) "जसौ जसयला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः" । ज. स. ज. स. य. ल. ग.। . ||. II. S. Iss. I. S. इति पृथ्वीलक्षणमिदम् । सरलार्थः-यत्र प्रतिपादं क्रमशः जगणसगणौ जगण छन्दोरत्नमाला-१२८

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