Book Title: Chand Rajano Ras
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 345
________________ १७५ चंदराजानो रास. मुःखन होवे कदा ॥ ए आंकणी ॥ नर सुर जगत् अनेकडे रे, चंद समो नहीं कोय ॥ निज दारा संतोषीरे, एसरीखा कोणहोयरे॥ शीला॥ अर्थ ॥ देवलोकमां इंचमहाराजाए देव सन्नामां एवं कडंके जंबुधीपना नरत क्षेत्रमा श्राकालमां चं दराजा वसे ने तेने धन्य . ( कवि कहे के हे नव्यजीवो तमे निरंतर शियल व्रतर्नु सेवन करो तेना पसायथी तमने कदापि सुख प्राप्त अशे नही.॥१॥ जगत्मां देवो अने मनुष्यो पारवगरनाले परंतु चंदराजा समान, मात्र पोतानी स्त्रीमांज संतोषी एवो ब्रह्मचर्य पालनार कोइ नथी. ॥२॥ माये विहंग को हतो रे, पण निज शिल प्रनाव ॥ सिझाचल फरसे थयो रे, पाडो वली नरराव रे ॥ शील ॥ ३॥ शियल चूकावे जे एहनो रे, ते नही को संसार ॥ मेरु चलेतो एचलेरे, जाणो सहु निरधार रे ॥ शील ॥४॥ अर्थ ॥ पोतानी उरमान माताए पदी बनाव्यो हतो परंतु पोताना शियसना प्रनावश्री सिद्ध गिरिराजनो फरस अतांज पागे मनुष्य रूप थयो . ॥ ३ ॥ आ संसारमा तेना शियलवतमां नंग करावे तेवो कोई देखातो नथी. तमे सर्वे खात्रीथी मानजो के जो मेरु पर्वत चलेतोज ते चलायमान थाय.॥४॥ एक सुर श्रण सहतो थको रे, चंदतणी सुप्रशंस॥श्राव्यो शियल चुकाववारे, निशि पोतानपुर अंश रे॥ शीलम् ॥५॥ रजनी मध्यने अवसरे रे, कीधो खे चरी वेश ॥ निरखी त्रिजुवन मनचले रे, मायारूप विशेष रे ॥ शील ॥६॥ . अर्थ ॥ ते सलामध्येनो एक देव इंजनांवचनो रूप चंदराजानी प्रशंसाने नही सहन करवाथी अर्थात् ते वचनो उपर तेने श्रद्धानहीं बेसवाथी, चंदराजाने शियलथी नष्ट करवा सारु ते ते रात्रिए पोतन पुर नगरे आव्यो.॥५॥ मध्यरात्रिने समये तेणे एक विद्याधरीनो वेश धारणकर्यो; अने महा मोहजनक एवी तो शरीरनी सौंदर्यता रची के ते देखतांज त्रणनुवनना पामरजीवोनां मन चली जाय. ॥६॥ रुदन करे उंचे स्वरे, रही एकांत प्रदेश ॥ निसुणी चंद नरेसरु रे, अचरिज लह्यो सुविशेष रे ॥ शील० ॥॥ कुण पुःखणी रणमा रके रे, एकली माजम रात ॥ खड्ग लश्ने एकलो रे, चाट्यो चंद विख्यात रे ॥ शीलम् ॥ ॥ अर्थ ॥ ते स्थलना एकांत नागमां बेसीने तणीए उंचे स्वरे एव॒तो रुदन करवा माङ्यु के चंदराजाने ते सांजलतांज अत्यंत आश्चर्य उत्पन्न थयु. ॥ ७॥ श्रावी घोर अंधारी मध्यरात्रिए था जंगलमां रमे एवी कोण मुखीयारी हशे. मारे तेनो तपास करवो जोइए एवो निश्चयकरी हाथमां खड्ग लश् चंदराजा चाट्यो. शब्दे शब्दे निकुंजमां रे, श्राव्यो नारी समीप ॥ दिने मदन दिपालिका रे, जगमग जूषण दीप रे ॥ शील ॥ ए॥ कहे नरवर वनिता करे रे, केम ए वमो श्राकंद ॥ कहे मुजने शंकीश मारे, टालीश हुँ दुःख फंद रे ॥ शील॥१॥ अर्थ ॥ क्याथी शद्ध आवेळे एम श्रावता शद्वनी दिशाने साधतो वननी घटामां ते स्त्रीनी पासे श्राव्यो. तेनी समीपे श्रावतां ते स्त्री साक्षात् कामदेवनी महाज्योति रूप दिवाली सदृश अने सुंदर अलंकारोथी विजूषित श्रयेसी दीनी. ॥ ए॥ चंदराजाए कह्युके हे स्त्री आवीरीते अत्यंत जोरथी रुदन करवानुं शुं कारणबे? मारीपासे कांइपण शंका नहीं राखतां कहीदे. दुं तारं फुःख टालीश ॥१०॥ Jain Education International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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