Book Title: Chand Rajano Ras
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 388
________________ ३१७ चतुर्थ उदास. रायझषिने करीवंदनांजी, गुण शेखरादिक ताम ॥ करजोमीने विनवेजी, सहु निज निज लेश नाम ॥ अ० ॥ ११॥ माया उतारी संचर्याजी, राज्य तज्यु तृण जेम ॥ पण श्रमचा मनडा थकीजी, तमे वीसरशो केम ॥ श्र॥ १२ ॥ अर्थ ॥ पनी गुणशेखर प्रमुख सर्व समुदाये राजर्षिने वंदना करी; अने दरेकजण पोतपोताना नामपूर्वक बेहाथजोडी विनंति करवा लाग्या. ॥ ११॥ अमारा उपरथी राग तजीदश् श्राप विहार को एटर्बुज नहीं पण राज्यनेपण तणखलानी जेम तजी दीधुं परंतु अमारा मनमांथी तमे विसरावाना नथी.१५ श्रावजो वेदेला वंदाववाजी, रखे मुकोजी विसार ॥अंगतणा मलनी परे जी, तमे परिहरी मांड्यो विहार ॥ १० ॥ १३ ॥ धर्माशिष देश कहेजी, राजझषि . तेणी वार ॥ धर्मोयम करजो सहुजी, ए श्रथिर जाणी संसार ॥ ॥१४॥ अर्थ ॥ श्रमारी विनंति ए ने के श्रमने फरी दर्शननो लाल आपवा पधारजो. अमने मनमांथी विसारी देता नही. आपे तो शरीरना मेखने तजी देवानी जेम सर्वने तजी दई विहार शरू कर्यो . ॥१३॥ पनी राजर्षि सर्वने धर्मलाजरूप आशिर्वाद दई बोट्याके तमे सर्वे श्रा संसारने दणजंगुर जाणीने धर्मने विषे उद्यम करजो. ॥१४॥ मात पितासुत केहनाजी, केहना राज्य मंडार ॥म धरशो प्रतिबंध कोश्थीजी, नित पालजो कुल आचार ॥१०॥ १५॥ चंद मुनिनी शिखथीजी, पुत्रादिक परिवार ॥ आंसु वमता श्रावीयाजी, एम श्रानानगरी मकार ॥ १०॥ १६ ॥ अर्थ ॥ कोना माबाप-कोना पुत्र अने कोना राज्य नंमार के. सर्वे अनित्य होवाथी कोश्नीसा प्रतिबंध गाढ स्नेहबंधन करशो नही. निरंतर कुलाचारमा वर्तजो. ॥ १५॥ एवीरीते चंदराजर्षिए आपेली शिखामण ग्रहण करीने पुत्रादि गुणशेखर विगेरे सर्व परिवार आंसु पडता आलानगरीमा श्राव्या.॥१६॥ चंद महामुनि जगजयोजी, उपशम धरी सुविशाल ॥ मोहने चोथा उसासनीजी, कही एकत्रीशमी ढाल ॥०॥१७॥ अर्थ ॥ अनुक्रमे चंद राजर्षि विशाल उपशम रसने धारण करता जगत्मां जयवंता प्रवा. एवीरीते चोथा उल्लासमां एकत्रीशमी ढाल मोहन विजयजीए कही. ॥१७॥ ॥दोहा॥ महाऋषी श्रीचंदवर, विरमी सकल संताप ॥ स्थविर समीपे अन्यसे, चारित्र क्रिया कलाप ॥१॥ सुमतिरुषि शिवकुंवर ऋषि, करे शास्त्र सु प्रसंग ॥ राज कृषिना विनयमां, नित प्रते रहे अजंग ॥२॥ अर्थ ॥ तदनंतर महर्षि चंदराये सर्व संतापने शांतकरी चारित्र क्रिया विधिनो स्थिविर मुनिपासे अभ्यास करवा मांड्यो. ॥१॥ सुमतिरूषि अने शिवकुंवर रूषिएपण शास्त्रनो अन्यास करवा मांड्यो. तेऊना राजर्षिना विनयमां निरंतर अनंगपणे प्रवर्त्तवा लाग्या. ॥२॥ Jain Education International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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