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बहुसमओ वि अमओ, पाविय - उदओ वि पत्त - जल-संगो । बीओ विणेयरयणं, अहेसि सिरिचंदसूरिति ॥ " “पसरिय-जस-पडहारव-नच्चाविय-कित्ति-तरुणिरयणस्स । असरिस-गुण-मणि-निहिणो, पहुणो सिरिचंदसूरिस्स ।। चडवीसइ जिणपुंगव - सुचरिय- रयणाभिराम - सिंगारो । एसो विणेयदेसो, जाओ हरिभद्दसूरि त्ति ।।
अपभ्रंश भाषा में इनके द्वारा रचित नेमिनाथचरित की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि यह कृति चौलुक्यनरेश कुमारपाल के शासनकाल में पाटण में वि०सं० १२१६ कार्तिक सुदि १३ को पूर्ण हुई थी । २२ इसमें कुल ८०३२ श्लोक हैं।
विजयसेनसूरि द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती; किन्तु उनके शिष्य समन्तभद्रसूरि ने, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है अपने गुरु के गुरुभ्राता नेमिचन्द्रसूरि द्वारा रचित अनंतनाथचरिय का संशोधन किया था। २३ ठीक यही बात नेमिचन्द्रसूरि के दूसरे गुरुभ्राता यशोदेवसूरि के बारे में भी हम ऊपर देख चुके हैं। आम्रदेवसूरि के दो अन्य शिष्यों गुणाकर एवं पार्श्वदेव द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है, और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। उस सभी मुनिजनों की शिष्य-सन्तति में आगे चलकर कौन - कौन से मुनि हुए, इस बारे में भी कोई जानकारी नहीं मिलती । बृहद्गच्छ की परम्परा आगे की शताब्दियों में भी प्रवाहमान रही; किन्तु उनका उक्त मुनिजनों से क्या सम्बन्ध था, इस सम्बन्ध में कुछ भी जान पाना प्रायः असम्भव हीहै ।
बृहद्गच्छ का इतिहास
मानदेवसूरि, (सर्व)देवसूरि और अजितदेवसूरि की पूर्वोक्त अलग-अलग शिष्यपरम्पराओं की तालिकाओं के परस्पर समायोजन से बृहद्गच्छीय मुनिजनों की जो संयुक्त तालिका बनती है, वह इस प्रकार है :
द्रष्टव्य तालिका क्रमांक
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