________________
१९०
बृहद्गच्छ का इतिहास पूर्णिमागच्छीय किन्हीं जयराजसूरि ने स्वरचित मत्स्योदररास (रचनाकाल वि०सं० १५५३/ई० सन् १४९७) की प्रशस्ति में और इसी गच्छ के विद्यारत्नसूरि ने वि०सं० १५७७/ई० सन् १५२० में रचित कूर्मापुत्रचरित५ की प्रशस्ति में मुनिचन्द्रसूरि का अपने गुरु के रूप में उल्लेख किया है। पूर्णिमागच्छ से सम्बद्ध बड़ी संख्या में प्राप्त अभिलेखीय साक्ष्यों में तो नहीं किन्तु भीमपल्लीयाशाखा से सम्बद्ध वि०सं० १५५३१५९१ के प्रतिमालेखों में मुनिचन्द्रसूरि का उल्लेख मिलता है। अत: समसामयिकता
और गच्छ की समानता को देखते हुए उन्हें एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा नहीं है। चूंकि पूर्णिमागच्छ की एक शाखा के रूप में ही भीमपल्लीयाशाखा का जन्म और विकास हुआ, अत: इस शाखा के किन्हीं मुनिजनों द्वारा कहीं-कहीं अपने मूलगच्छ का ही उल्लेख करना अस्वाभाविक नहीं प्रतीत होता और सम्भवत: यही कारण है कि उक्त ग्रन्थकारों ने अपनी कृतियों की प्रशस्ति में अपना परिचय पूर्णिमागच्छ की भीमपल्लीयाशाखा के मुनि के रूप में नहीं अपितु पूर्णिमागच्छ के मुनि के रूप में ही दिया है। विभिन्न गच्छों के इतिहास में इस प्रकार के अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं। ___प्रतिमालेखों और ग्रन्थप्रशस्तियों के आधार पर पूर्णिमापक्ष-भीमपल्लीयाशाखा के मुनिजनों की गुरु-परम्परा की एक तालिका निर्मित होती है, जो इस प्रकार है :
साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर निर्मित पूर्णिमापक्ष- भीमपल्लीयाशाखा के मुनिजनों का विद्यावंशवृक्ष चन्द्रप्रभसूरि (पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक)
धर्मघोषसूरि (चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज (ई०सन् १०९४-११४२)
द्वारा सम्मानित)
सुमतिभद्रसूरि
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org