Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 27
________________ १६ , ताड़पत्र अथवा संपुटक पत्र-संचय और कर्म का अर्थ उसमें वर्तिका आदि से लिखना किया है। इसी सूत्र में आये हुए पोत्थकार ( पुस्तककार) शब्द का अर्थ टीकाकार ने ' पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने वाला किया है । जीवाभिगम (३ प्रति ४ अधि.)के पोत्थार शब्द का भी यही अर्थ होता है । भगवान् महावीर की पाठशाला में पढ़ने-लिखने की घटना भी तात्कालिक लेखन-प्रथा का एक प्रमाण है । यद्यपि भारतीय वाङ्मय - चाहे जैन हो, बौद्ध अथवा वैदिक एक लम्बे ―― समय तक कण्ठस्थ परम्परा में सुरक्षित रहा है, किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हम उस समय लिखना नहीं जानते थे । जलवायु की विषमताओं के कारण लेख-पत्र भले ही नष्ट हो गये हों, किन्तु ईसा से सहस्रों वर्ष पूर्व का पुरातात्त्विक प्रमाण मोहन-जो-दरो और हरप्पा की खुदाइयों में प्राप्त हुआ है । उस पर उत्कीर्ण लिपि, लिपि तो है ही, भले ही आज उसे पढ़ने में हमारे मध्य विवाद हो । लिपि संस्कार के समय बालक के मुख से एक ऐसे मंगल वाक्य का उच्चारण करवाया जाता था, जो आगे चल कर समूचे भारत की विरासत बना । वह वाक्य था——ओनामासी धम्म । संस्कृत में इसे 'ॐनमःसिद्धेम्यः' । कहते हैं । इसका अर्थ है--सिद्धों को नमस्कार हो । यह श्रमण परम्परा का प्राचीन मंत्र वाक्य है । तीर्थंकर महावीर के पहले से चले आये चौदह पूर्वी में से एक पूर्व था विद्यानुवाद' - मन्त्र विद्या का सशक्त ग्रन्थ । उसमें यह मन्त्र निबद्ध था । इसके उच्चारण से बालक का विद्याध्ययन निर्विघ्न पूरा होता था, ऐसी मान्यता थी । इसका प्रचलन केवल जैनों में ही नहीं, अपितु भारत के सभी सम्प्रदायों में था । श्रमण और ब्राह्मण के संघर्ष के होते हुए भी यह वाक्य बिना किसी भेदभाव के चलता रहा । वह सार्वभौम बन सका, ऐसी उसमें क्षमता थी । भावात्मक एकता के लिए ऐसे सूत्रवाक्यों का अपना एक पृथक् महत्त्व होता है। यह प्रश्न उठाना कि यह सूत्र मूलतः श्रमणों का था अथवा ब्राह्मणों का और श्रमणों में भी जैनों का था अथवा बौद्धों का, एक व्यर्थ की बात है । वह सब का बन सका और लिपि संस्कार के समय बालक के द्वारा उसका उच्चारण मंगल माना गया, इतना ही पर्याप्त है । किन्तु ऐसे प्रश्न उठे अवश्य होंगे, तभी तो यह पवित्र सूत्र भी आगे चल कर विद्वेष और विकृति का शिकार बना । एक दूसरा वाक्य है- 'कक्का रीतु केवलिया' । यह महाजनी मुण्डिया fafe के बहीखातों में आज भी लिखा जाता है । कक्का बारहखड़ी का द्योतक है और 'केवलिया' केवली भगवान्, अर्थात् केवलज्ञान के धारक अर्हन्त का प्रतीक १. कहा जाता है कि मुनि सुकुमारसेन ( 7 वीं सदी ईसवी) के विद्यानुशासन में, विद्यानुवाद की बिखरी सामग्री का संकलन हुआ है । विद्यानुशासन की हस्तलिखित प्रति जयपुर और अजमे के शास्त्र भण्डारों में मौजूद है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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