Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 144
________________ ऐकारं विमलं ध्यायेद्विश्वज्ञानात्मकं शभम् । मंत्रिणां वरदं ध्यायेत् समर्थं बहुकर्मसु ॥१२॥ ओकारं पंचवर्णं तु परमात्म स्वरूपकम् । सर्वात्मवरदं ध्यायेत् समर्थं बहुकर्मसु ॥१३॥ विश्वविद्याधिपं ध्याये सर्वभूतवशं करम् । औकारं वरदं ध्यानी समर्थं बहुकर्मसु ॥१४॥ अंकारं तारकावणं चिन्तयेद् विश्वशक्तिदम् ।। मंत्रिणां वरदं ध्यायेत् समर्थं बहुकर्मसु ॥१५।। अःकारं स्फटिकाकारमनन्तात्म स्वरूपकम् ।।१६।। ककारं पद्मरागाभं तत्पुरुषभधिदैवतम् ॥१७॥ खकारं नीलवर्णं तु जिनराजाधिपं शुभम् ॥१८॥ गकारं तु हरिद्वर्ण कर्मठाधिपमेव च ॥१९॥ घकारं काञ्चनाकारं वीरदेव समाह्वयम् ॥२०॥ ङकारं पूर्णचन्द्राभं क्षेत्रज्ञाधिपपूजितम् ॥२१॥ चकारं रजताभं तु अधोरमधिपत्थकम् ॥२२॥ छकारं त्विक्षुपत्राभं अमृतात्मस्वरूपकम् ।।२३।। जकारमशितशस्तं विजयाधिप दैवतम् ॥२४॥ झकारं रक्तवर्ण तु अच्युताधिपदैवतम् ।।२५।। आकारं चम्पकावर्णं सर्वज्ञाधिपदैवतम् ॥२६।। टकारं कारिकावर्ण सद्योजाताधिपत्यकम् ।।२७।। टकारं शुभ्रवर्णं तु देवांगेन समन्वितम् ॥२८॥ डकारं स्वर्णवर्णं तु चिन्तितार्थस्वरूपकम् ।।२९।। ढकारं श्वेतवर्णं तु स्थाणुराधिप दैवतम् ॥३०॥ णकारं पद्मवर्णं तु परमेष्ठिस्वरूपकम् ॥३१॥ तकारं शंखवर्णं तु वामदेवाधिपत्यकम् ॥३२॥ थकारं शस्तवर्णं तु विष्णुदेवाधिपत्यकम् ॥३३॥ दकारं कुंकुमाकारं कालाधीशाधिपत्यकम् ॥३४॥ धकारं नीलवर्णं तु शिवनामाधिपत्यकम् ॥३५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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