Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 66
________________ ब्राह्मी लिपि ब्राह्मी शब्द और उसका प्रयोग ___ ऋग्वेद में ब्राह्मी शब्द आया है जिसे मातरः कहा गया है। अर्थात् माता के अर्थ में ब्राह्मी का प्रयोग होता था। ऋग्वेद की वह ऋचा इस प्रकार है "अमी ब्रह्मीरनूषत् ब्रह्मीव्रतस्य मातरः म ज्यते दिवः शिशुम् ॥" ---ऋग्वेद ९/३३/५, चतुर्थ भाग, पूना इस ऋचा से स्पष्ट है कि मातरः के अर्थ में ब्राह्मी शब्द का नहीं, अपितु ब्रह्मी शब्द का प्रयोग हुआ था। 'अमरकोषकार' ने इसी अर्थ में ब्राह्मी शब्द का प्रयोग किया, जैसा कि 'ब्राह्मीत्याद्यस्तु मातरः१ से स्पष्ट है। 'अमरकोषकार' ने ब्राह्मी शब्द का प्रयोग ‘सोमवल्लरी, और भाषा तथा लिपि' के अर्थ में भी स्वीकार किया है। सोमवल्लरी के लिए उन्होंने लिखा है, "ब्राह्मी तु मत्स्याक्षी वयस्था सोमवल्लरी।" २ भाषा और लिपि को बताने वाली उनकी पंक्तियां हैं:-- "ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती। व्यवहार उक्तिर्लपितं भाषितं वचनं वचः ॥"3 इसकी पहली पंक्ति का विश्लेषण करते हुए एक व्याख्याकार ने लिखा है"ब्राह्मी द्वारा लोक में प्रचारित होने से ब्राह्मी, भारत में बोले जाने से भारती, मख से उच्चार्यमाण होने से भाषा, शब्दार्थों का निगरण करने से गी: अथवा गिरा, उच्चरित होने से वाक्, शब्दार्थ के सम्भवन से वाणी तथा गतिशीलता से सरस्वती कहलाती है ।” आचार्य हेमचन्द्र ने 'अभिधान चिंतामणि' में ब्राह्मी शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया है। उन्होंने रोहिणी नक्षत्र के दो नाम बताये-ब्राह्मी और रोहिणी। मातर. के अर्थ में भी उन्होंने ब्राह्मी शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने लिखा कि शिवजी के परिकर में ब्राह्मी आदि सात माताएँ हैं--ब्राह्मी, सिद्धी, माहेश्वरी, कौमारी, १. अमरकोष, १/१/३५, मिलाइए 'ब्रह्माण्याद्याः स्मृताः सप्तदेवता मातरो बुधैः इति हलायुधः', १/१७. २. अमरकोष, २/४/१३७, मिलाइए, 'ब्राह्मी तु भारती । शाकभेद:पंकगण्डी हज्जिका सोमवल्लरी। ब्रह्मशक्ति इति हैमः, २/२३२-३३ तथा 'ब्राह्मी तु भारती सोमवल्लरी ब्रह्मशक्तिष' इति मेदिनी। ३. अमरकोष, १/६/१, मिलाइए 'ब्रह्माणी वचनं वाना जल्पितं गदितं गिरा, इति शब्दाव: (४)' तथा 'ब्राह्मी त ब्रहाशक्ति: म्यान्मत्याक्षी भारती च मा' इति नानार्थरत्नमाला ४. 'कृत्तिका बलाश्चाग्निदेवा ब्राहा त रोटिणी', अभिधान चिन्तामणि, २१२३, प० २३. www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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