Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 85
________________ ७४ तक लिखा कि वे म्लेच्छ और यवन, जिनमें शास्त्र भली भाँति स्थित हैं, ऋषिवत् पूजे जाते हैं। उनका कथन है "म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत् तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्दैवविद् द्विजः ।" 'पण्णवणासुत्त' में, भाषा के अनुसार आर्य केवल उनको बताया, जो अर्द्धमागधी भाषा में वार्तालाप करते हैं, लिखते-पढ़ते हैं और जिनमें ब्राह्मीलिपि का व्यवहार होता है।' अर्थात् उन्होंने उन सबको आर्य माना, जो अर्द्धमागधी प्राकृत में बोलते और ब्राह्मी लिपि का व्यवहार करते हैं, फिर वह यवन हो या म्लेच्छ, शूद्र हो या ब्राह्मण, क्षत्रिय हो या वैश्य । 'अववाइअसुत्त' में भी लिखा है कि भगवान् महावीर आर्य और अनार्य दोनों को समान रूप से धर्मोपदेश करते थे—“तेसि सव्वेसिं आर्यअणारियाणं अगिलाए धम्म आइक्खई।"२ अर्थात् जैनों ने भाषा और लिपि के अध्ययन और अध्यापन में जाति-भेद को कभी स्वीकार नहीं किया। लिखने-पढ़ने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है, अन्य किसी को नहीं, इस मान्यता की रचना ब्राह्मण ने की और उसका प्रचार भी किया। श्रमण-परम्परा ने ऐसा कभी नहीं माना। उसने लिपि को एक साधना के रूप में स्वीकार किया और उसका द्वार सबके लिए खुला रक्खा। जैन समाज में श्रुतपञ्चमी का महत्त्व बहुत अधिक है। इस दिन नये शास्त्र लिख कर स्थापित किये जाते हैं और प्राचीन शास्त्रों की वन्दना की जाती है । अर्थात् श्रुतपंचमी का अर्थ श्रुत भक्ति से है-वह किसी रूप में की गई हो, नये शास्त्र लिख कर अथवा प्राचीन शास्त्रों को श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर। श्री आशाधर सूरि ने प्रतिष्ठा सारोद्धार में लिखा है-- "शुभे शिलादावुत्कीर्य श्रुतस्कन्धमपि न्यसेत् । ब्राह्मीन्यास विधानेन श्रुतस्कन्धमिह स्तुयात् ।। सुलेखकेन संलिख्य परमागमपुस्तकम् । ब्राह्मीं वा श्रुतपञ्चम्यां सुलग्ने वा प्रतिष्ठयेत् ॥" --प्रतिष्ठासारोद्धार ६/३३-३४ अर्थ---शुभ मुहूर्त में, शिलादि में उत्कीर्ण करके श्रुतस्कंध की स्थापना करे, फिर ब्राह्मी के न्यासविधान से उसकी स्तुति करे । सुलेख-पूर्वक परमागम पुस्तक अथवा ब्राह्मी लिख कर श्रुतपञ्चमी के शुभ मुहूर्त में उसकी स्थापना करे। तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के दो सौ वर्ष पश्चात् जैन ऋषियों ने मौखिक पठन-पाठन के साथ ग्रन्थ रचना प्रारम्भ की। सबसे पहले आचार्य गुणधर ने कषाय पाहुड और आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि ने षटखण्डागम को लिपिबद्ध किया। इस १. पण्णवणासुत्त-५६. २. अववाइअसुत्त, पारा-५६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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