Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 133
________________ १२२ जैन ग्रन्थों में, काल गणना से सम्बन्धित कतिपय पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख हुआ है। उनमें समय, आवलि, उच्छ्वास-प्राण, स्तोक, लव, नाली, मुहूर्त और अहोरात्र मुख्य हैं। इनमें भी समय प्रमुख है, क्योंकि यह सब सेछोटा काल-परिमाण होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' में समय की परिभाषा देते हुए लिखा है, “परमाणु प्रचलनायत्तः समयः।"१ अर्थात् परमाणु मन्दगति से चलकर, निकटतम प्रदेश में जितने काल में पहुँचता है, उसे समय कहते हैं। समय, आवलि, उच्छ्वास, स्तोक आदि की गणना का मूलाधार है । इस सब को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है २-- समय = मन्दगति से चलते हुए परमाणु को निकटतम प्रदेश में पहुँचने का काल-परिमाण । आवलि = असंख्यात समय परिमाण काल उच्छ्वास == संख्यात आवलि = २८८०।३७७३ सेकिण्ड स्तोक = ७ उच्छ्वास -- ५१६५ सेकिण्ड लव = ७ स्तोक = ३७०१ सेकिण्ड ३ लव = निमेष नाली = ३८३ लव = २४ मिनिट मुहूर्त = २ नाली = ४८ मिनिट अहोरात्र = ३० मुहूर्त = २४ घण्टे आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय में' 'नयनपुटघटनायत्तो निमिषः'३ कहा है। इसका अर्थ है कि जितने काल में नेत्र की पलक खुलें, वह निमिष कहलाता है। किन्तु, सब के मूल में 'समय' के होने के कारण, काल का पर्यायवाची समय ही कहलाता है। जैनाचार्यों का कथन है कि समय अतिसूक्ष्म है, अतः वह केवलज्ञानगम्य है। अवशिष्ट चार ज्ञान उस तक नहीं पहुँच पाते। स्थूल समय-समुदायों को काल-चक्र कहते हैं। यह व्यावहारिक है-प्रतिदिन के व्यवहार में आता है। कालचक्र में चक्र शब्द, 'क्रियते गतिरनेनेति चक्रम्' से गति का सूचक है। काल गतिशील है, प्रवाहमय है, सदैव चलता रहता है, कभी रुकता नहीं। ‘सर्वार्थ १. पंचास्तिकाय-२५. २. हीरालाल जैन सम्पादित--धवला, ३/३४. ३. पंचास्तिकाय-२४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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