Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 134
________________ १२३ सिद्धि' में लिखा है, “देशाद्देशान्तरहेतुर्गतिः ।"१ अर्थात् एक देश से दूसरे देश को प्राप्त करने का जो साधन है, उसे गति कहते हैं। राजवार्तिक में गति की परिभाषा एक दूसरे प्रकार से भी दी है, "उभयनिमित्तवशाद् उत्पद्यमानः कायपरिस्पन्दो गतिरित्युच्यते ।"२ इसका अर्थ है कि बाह्य और आभ्यन्तर निमित्त के वश से उत्पन्न होने वाला काय का परिस्पन्दन गति कहलाता है। इस गति का मूल उपलक्षण सूर्य है। सूर्य की आकृति चक्राकार है। उसे आदित्य मंडल भी कहते हैं। संसार का कार्य व्यवहारपरक है और सूर्य उसका प्रतीक साधन है। इस आदित्यमण्डल में बारह आरे लगे हुए हैं, जो सदैव घूमते रहते हैं । उन्हें ही बारह माह कहते हैं। इन बारह आरों में छः ऊपर और छ: नीचे लगे होते हैं और ऊपर-नीचे अर्ध-अर्ध वलय में घूमते हैं । मूल-चक्र इन्हीं आरों पर आरोह-अवरोह करता है। इसी कारण सूर्य छ:महीने उत्तर में और छ: महीने दक्षिण में गति करता है। इसे उसका उत्तरायण और दक्षिणायन होना भी कहते हैं। इसी को उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल कहा जाता है । उत्सर्पिणी काल में सूर्य का तेज प्रबल हो जाता है, तब दिन लम्बे और रात छोटी होती है। अवसर्पिणी काल में तेज अपक्षीण हो जाता है। अन्धकार का राज्य होता है। रातें बड़ी होने लगती हैं। सूर्य की ये दोनों गतियाँ रोजाना के दिन पर भी लागू होती हैं। प्रातः से मध्याह्न तक सूर्य का उत्सर्पण और फिर सांध्य तक अवसर्पण होता है। उत्सर्पण काल में प्राणियों में आशा, उत्साह, साहस, बुद्धि और बल का उत्कर्ष रहता है, इसके पश्चात् अवसर्पण काल में अनुत्साह, आलस्य और निराशा को जन्म मिलता है। सूर्य के उदय और अस्त का प्रभाव मनुष्य के भावों पर पड़ता है--कैसे और क्या, जैन ग्रन्थों में लिखा मिलता है। संसार में दो ही बातें हैं--सुख या दुख। जैन आचार्यों ने सुख और दुख के सन्दर्भ में समूचे काल को आदित्यमण्डल ३ के बारह आरों की भांति बारह भागों में विभक्त किया है। वे बारह भाग इस प्रकार हैं--" सुखमा-सुखमा, १. सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, १६५१, अध्याय ४, सूत्र २१, पृष्ठ २५२. २. तत्त्वार्थराजवात्तिक, भारतीय ज्ञानपीठ, वि.सं.२००८, अध्याय ४,सूत्र २१, पृष्ठ २३६, पंक्ति १. (प्रथम) मिलाइए --"गइकम्मविणिव्वता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा। जीवा दु चाउरंग गच्छंति त्ति य गई होई ॥" अर्थ--गति नामकर्म के उदय से जीव की जो चेष्टाविशेष होती है, उसे गति कहते हैं, अथवा जिमके निमित्त से जीव चतुर्गति में जाते हैं, उसे गति कहते हैं। सत्प्ररूपणासूत्र, वर्णीग्रन्थमाला, वाराणसी १६७१, पृष्ठ ८. ३. “वर्षायनर्तुयुग पूर्वकमत्र सौरात् ।” भास्कराचार्य सिद्धान्त शिरोमणि, कालमानाध्याय-३१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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