Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 110
________________ ९९ "बंभीए ण लिवीए अठ्ठारसविहे लेक्खबिहाणे पणत्ते । तंजहा - बंभी, जवणालिया, देसऊरिया, वरोदिया, खरसाविया, महाराइया, उच्चत्तरिया, अक्खर-पुत्थिया, भोगवयत्ता, वेयणतिया, णिण्हइया, अंकलिबि, गणिअलिबि गंधaafafe, आदस्सलिबि, माहेसरलिबि, दामिलिबि, बोलिदिलिबि । " 9 'समवायांगसूत्र' में भी लिपि के भेद दिये हैं । उसमें ब्राह्मी के अतिरिक्त और अठ्ठारह लिपियों का नामोल्लेख हुआ है । वहाँ स्पष्ट लिखा है कि ये अठारह लिपियाँ ब्राह्मी के विभिन्न प्रकार हैं । वे इस भाँति हैं- १. यावनी, २. दोषोपकारिका, ३. खरोष्ट्रिका, ४. खरश्राविता, ५ पकारादिका, ६. उच्चतरिका, ७. अक्षरपृष्ठिका, ८. भोगवतिका, ९. वैणयिका, १०. निन्हविका, ११. अंकलिपि, १२. गणितिलिपि, १३. गन्धर्वलिपि, १४. भूतलिपि, १५. आदर्शलिपि, १६. माहेश्वरीलिपि, १७. द्राविडलिपि, १८. पुलिंदलिपि विशेषावश्यक भाष्य की टीका में जिन १८ लिपियों का नामोल्लेख हुआ है, वे इस प्रकार हैंहंस, भूत, यक्षी, राक्षसी, उड्डी, यवनी, तुरुक्की, कीरी, द्राविड़ी, सिंधवीय, मालवी, नटी, नागरी, लाट, पारसी, अनिमित्ती, चाणक्यी, और मूलदेवी । 3 २ समवायांगसूत्र की लिपियों में 'भूतलिपि' अधिक है । वैसे, इन सभी लिपियों का रूप - विवेचन उपर्युक्त प्राचीन ग्रन्थों में नहीं मिलता । फिर भी, जहाँ तक यावनी का सम्बन्ध है, वह यवनानी अर्थात् यूनानी लिपि है । निश्चित रूप से यह भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में बोली जाती थी । ईसा से चौथी शताब्दी पूर्व सम्राट सिकन्दर का भारत के इस भाग पर आक्रमण हुआ था। तभी से यूनानी किसी-न-किसी रूप में वहाँ रहते रहे । उनकी लिपि का भी प्रचार हुआ । एरिअन ने अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में सिकन्दर के सेनापति निआर्कस ( ३२६ ई. पू.) द्वारा लिखित भारत का वृत्तान्त संक्षेप में दिया है। उससे स्पष्ट है कि यहाँ पहले से ही ब्राह्मी लिपि थी, किन्तु यूनानियों के बसने और उनके राजशासन के बाद यूनानी लिपि छा गई होगी, ऐसी सम्भावना वहाँ पाये गये प्रभावों से पुष्ट हो जाती है । डा. रघुबीर ने अपनी शोध-खोजों के आधार पर कहा था कि चीन की दीवाल के इस ओर बने एक बौद्धमठ में और तक्षशिला विश्वविद्यालय में, बाहर जाने वाले यात्रियों को 'सम्बन्धित भाषाओं और १. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग पंचम्, पृष्ठ १२८४. २. समवायांग सूत्र - अध्याय १८. ३. विशेषावश्यक भाष्य की टीका, पृष्ठ ४६४. इसके अतिरिक्त १८ लिपियों के लिए लावण्यसमयगणि का विमल प्रबन्ध, लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय की 'कल्पसूत्रटीका', मुनि पुण्यविजयभारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखन कला ( पृ० ६ ) तथा श्री अगरचन्द नाहटा का 'जैन आगमों में उल्लिखित भारतीय लिपियाँ एवं इच्छालिपि, ( ना० प्र० प०, वर्ष ५७, अंक ४ ) देखे जा सकते हैं ।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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