Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 41
________________ है। डॉ० राजबली पाण्डेय का यह कथन Jain Mss were copied by monks and nuns who spent their time in preparing the Mss of sacred texts. ' 5.१ नितान्त सत्य है और तथ्यों पर आधृत है । जो प्रतिलिपियाँ कायस्थ लेखकों के द्वारा की गई हैं, उनमें भद्दी भूलें हैं । कहीं-कहीं ऐसा गजब हुआ है कि आज विद्वानों के लिए उनका परिहार दुरूह प्रतीत होता है । मेरी दृष्टि में कायस्थ लेखकों को संस्कृत - प्राकृत का सुष्ठु ज्ञान नहीं था। ब्राह्मण पण्डितों की प्रतिलिपियों में ऐसी आशुद्धियाँ नहीं हैं । अक्षर ३० 'अक्षर विन्यास' का अर्थ है- अक्षरों की बनावट या लिखावट | इसके पर्यायवाची हैं - अक्षर लिपि, वर्ण विन्यास, अक्षर संस्थान, अक्षरोटी और अक्षर लेख आदि। इनमें अक्षर मुख्य हैं। 'अथ किमिदमक्षरमिति', अर्थात् यह अक्षर क्या हैं ? इस प्रकार का प्रश्न भाष्यकार ने उठाया था । श्लोक वार्तिक नाम के जैन ग्रंथ में एक सूत्र है-अक्षरं न क्षरं विद्यात् । इसका अर्थ है, जिसका नाश न हो, वह अक्षर है। अक्षर शब्द क्षर धातु से बना है और 'क्षर संचलने' ( वा० प० से ० ) । पचाद्यच ( ३|१|१३४) । यद्वा-अश्नुते । 'अशू व्याप्तो' (स्वा० आ० सं० ) । 'अशे: सर:' ( उ० ३ / ७० ) । इस दृष्टि से अक्षर की व्युत्पत्ति हुई'नक्षरतीति अक्षरम्' । अर्थात् जिसका क्षरण न हो-संचलन न हो चलायमानता न हो, वह अक्षर है। ऐसी बात या तो लब्ध्यक्षर में होती है अथवा फिर केवलज्ञान में ही । दोनों ही हानि-वृद्धि रहित हैं, अर्थात् दोनों ही नाश हुए बिना एक रूप से रहते हैं। दोनों ही निरावरण हैं । लब्ध्यक्षर- सूक्ष्मतिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक के जघन्य ज्ञान को कहते हैं । और केवलज्ञान तीर्थंकर अथवा किसी भी साधक के सर्वोत्तम ज्ञान को कहते हैं । यह मोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से उत्पन्न होता है । इसे पाकर जीव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी परमात्मा हो जाता है । लब्ध्यक्षर ज्ञान केवलज्ञान अनन्तवाँ भाग है, किन्तु है वही, अतः दोनों को ही अक्षर संज्ञा प्राप्त है । केवलज्ञान का अर्थ है मोक्ष, परमात्मपद, परब्रह्म आदि । अनेकार्थ कोष में- "मोक्षेऽपवर्गे ओं ब्रह्मण्यच्युतेऽक्षरम् ।" कहा गया है । नानार्थ रत्नमाला में - " अक्षरं प्रणवे धर्मे प्रकृती तपसि कृतौ । वर्णे मोक्षे च ना त्वेष शिवविष्णुविरञ्चिषु । मृगादान बौद्धेषु ।” २ लिखा है । १. डॉ. पाण्डेय, इण्डियन पेलियोग्राफी, पृ १०. २. अमरकोष -- 'अक्षरं तु मोक्षेऽपि' की संस्कृत व्याख्या, ३/३/१८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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