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भाष भास्कर
ऊपर
रित समेत उघा लो नत्यादि । दुसरे वे चिमके पूर्व संज्ञा के सम्बन्ध कारक की विभक्ति पाती है। जैसे आगे पस बाहिर
तुल्य पीके संग
बिषय बायां स.थ बदले दहिमा कीचे भीतर तले बीच ३४५ ऊपर के लिखे हुए शब्द सचमुच अधिकरणावाची संज्ञा हैं पर उनके अधिकरण चिन्ह के ले.प करने से वे अव्यय हो गये हैं। जैसे पागा शब्द अधिकरण की विभक्ति सहित तो आगे में हो गया फिर अधिकरण के चिन्ह में का ले.प किया तो हुआ अ.गे जेसा देवमन्दिर घर के भागे में है फिर अधिकरण के चिन्ह में का लोप करके तो रहा देव. मन्दिर घर के आगे है। ऐसे ही सर्वत्र जाने। ॥
३ उपसर्ग। ___३४६ नीचे के लिखे हुए अव्यय शब्द संस्कृत और हिन्दी में उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग संस्कृत में प्राय: क्रियावाचक शब्द के पर्व युक्त होके क्रिया के भिन्न २ अर्थ का प्रकाश करते हैं ॥ ___ ३४७ कहीं दो कहीं तीन और कहीं चार उपसर्ग भी एकत्र होते हैं। जैसे विहार व्यवहार सुव्यवहार समभिव्याहार अ.दि ॥ ___३४८ उपसर्ग द्योलक हैं वाचक नहीं अर्थात जिस क्रिया से युक्त होते हैं उसी के अर्थ का नाश करते हैं पर असंयुक्त होके निरर्थक रहते हैं। कहीं ऐसा होता है कि उपसर्ग के आने से पद का अर्थ बदल जाता है। जैसा दान आदान इत्यादि ।
४६ उपसर्ग के प्रधान अर्थ वा भाव जो संयोग में उत्पन्न होते हैं नीचे लिखते हैं ॥
प्र-अतिशय गति यश उत्पत्ति व्यवहार आदि का द्योतक है। जैसे प्रण म प्रस्थान प्रसिद्ध प्रभृति प्रयोग इत्यादि ।
परा-प्रत्यावृत्ति नाश अनादर आदि का द्योतक है। जेसे पात्रय पराभव परास्त इत्य दि ।
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