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भाषाभास्कर
३८८ कह पाये है कि उस पद के समुदायक को वाक्य कहते हैं जिसके अंत में क्रिया रहकर उसके अर्थ को पूर्ण करती है। वह कर्तप्रधान और कर्मप्रधान के भेद से दो प्रकार का होता है ॥
१ कर्तप्रधान वाक्य । ___३६० कता अपने अपेक्षित कारक और क्रिया के साथ जब रहता हे तो वह वाक्य कहाता है। उस में जा और शब्दों की आवश्यकता हो तो ऐसे शब्द आवेंगे जिनका आपस में सम्बन्ध रहेगा । जैसे बढ़ई ने बड़ीसी नाव बनाई है लेखक ने सुन्दर लेखनी से मेरे लिये पोथी लिखी है इत्यादि ॥ __ ३६१ जे। ऐसे शब्द वाक्य में पड़ेंगे कि जिम्मका परस्पर कुछ सम्बन्ध न रहे तो उन मे कुछ अर्थ न निकलेगा इस कारण वह वाक्य अशुद्ध होगा।
२ कर्मप्रधान वाक्य । ३६२ जेसे कर्तप्रधान वाक्य में कला अवश्य रहता है वैसे ही कर्मप्रधान वाक्य में कर्म का रहना आवश्यक है क्योंकि यहां कर्म ही का के रूप से आया करता है। इस से यह रीत है कि पहिले कर्म और अंत में किया और अपेक्षित कारक और विशेषण सब बीच में अपने २ सम्बन्ध के अनुसार रहें । जेसे पर्वत में से सोना चांदी आदि निकाली जाती हैं बड़े विचार से यह सुन्दर अन्य भली भांति देखा गया ॥ __ ३६३ यह भी जानना चाहिये कि जैसे कर्तप्रधान क्रिया में कती प्रधान रहता है और कर्मप्रधान क्रिया में कर्म वैसे ही भावप्रथान क्रिया में भाव ही प्रधान हो जाता है।
३६४ जहां अकर्मक क्रिया का रूप कर्मप्रधान क्रिया के समान श्राता है और कर्ता भी करण कारक के चिन्ह से के साय मिले वहां भावप्रधान जाना। जेसे उस से बिना बोले कब रहा जायगा मुझ से रात को जागा नहीं जाता इत्यादि ॥ ___ ३६५ धातु के अर्थ को भाव कहते हैं वह एक हे और पुल्लिङ्ग भी
है इसलिये भावप्रधान क्रिया में भी एक ही वचन होता है और वह किया पुल्लिङ्ग रहती है।
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